क्रांति की अवधारणा और संबंधित साहित्य

सच्चिदानंद सिंह
शोधार्थी (पी.एचडी)
हिंदी विभाग
ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा, बिहार
7903243917
Sachidanayagaon@gmail.com

सारांश

प्रस्तुत शोध आलेख में क्रांति की अवधारण को स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि क्रांति एक ऐसा परिवर्तन है जो कई रूपों में परिलक्षित होता है। एक तो यह चिंतन परंपरा में परिवर्तन के रूप में दिखता है (नवजागरण, ज्ञानोदय आदि), दूसरा सत्ता परिवर्तन जैसे फ्रांसीसी क्रांति, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, तीसरे प्रकार का परिवर्तन उत्पादन में तेजी से परिवर्तन (प्रक्रियागत परिवर्तन) के रूप में दिखाई पड़ता है जैसे औद्योगिक क्रांति। प्रस्तुत आलेख में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वरुप को ऊपर के तीनों स्वरूपों को विभिन्न सम्बंधित साहित्य में देखने का प्रयास किया गया है । साथ ही, भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के पारस्परिक द्वंद्वो की पङताल करते हुए क्रांतिकारियों का सामान्य जनों में अपनी पैठ बढ़ाने के पीछे की तैयारियों एवं त्याग को भी रेखांकित किया गया है ।

बीज शब्द

क्रांति, नवजागरण, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन, समाजवाद, मार्क्सवाद

आमुख:

क्रांति की अवधारणा-

क्रांति वह परिवर्तन है जो तुलनात्मक रूप से तेजी से और अचानक होता है। यह परिवर्तन समाज में शक्ति की संरचना में शीघ्र परिवर्तन कर चुनौती देने वालों के द्वारा पहले के सत्ता वर्ग को हटाकर लाया जाता है। उदाहरण के लिए फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन आदि। अरस्तू के कथनानुसार ‘क्रांति राज्य के संविधान की आत्मा में परिवर्तन है’ (“Revolution means a change in the spirit of a state’s constitution”-Aristotle).। इस संदर्भ में वे आगे कहते हैं कि क्रांति के उद्भव के कारणों में गैर बराबरी, अन्याय, भय, सम्मान की चाह, राज्य में असंतुलन, चुनावी षड्यंत्र इत्यादि है। प्रजातंत्र में क्रांति के कारण में लोकनायक का उच्छृंखल होना माना है। कभी यह प्रजातंत्र

के स्वरूप में परिवर्तन की आग्रह लिए जन्म लेता है। कभी यह धनिकतंत्र एवं कुलीन तंत्र द्वारा सत्ता का अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर जनता के हितों को दरकिनार करना भी क्रांति का मुख्य कारण बनता है। धनिक तंत्र एवं कुलीन तंत्र के आपसी हितों का टकराव भी क्रांति की जमीन तैयार करती है।

क्रांति शब्द तेज, आकस्मिक जैसे अन्य संपूर्ण परिवर्तनों के लिए प्रयुक्त्त होता है, जैसे- संचार क्रांति, औद्योगिक क्रांति, हरित क्रांति आदि। कुछ ऐसे परिवर्तन और बदलाव जो अपनी प्रकृति व परिणाम से पहचाना जाता है। जैसे संरचनात्मक बदलाव, विचारों, मूल्यों तथा मान्यताओं में बदलाव। समाज की संरचना में बदलाव संरचनात्मक परिवर्तन के तहत आता है। उदाहरण के रूप में कागजी मुद्रा का प्रचलन वित्तीय संस्थाओं और उसके लेन-देन में अमूल चूल परिवर्तन लाया। ये परिवर्तन मनुष्य के आर्थिक जीवन को बदल कर रख दिया। बाल अधिकार संबंधित विचार एवं मान्यता ने समाज को बाल श्रम से मुक्ति पर सोचने एवं विचार का मौका प्रदान किया। इस संदर्भ में बाल श्रम मुक्ति एवं इनके अधिकार से संबंधित कितने कानूनी परिवर्तन हुए।

इस प्रकार क्रांति (परिवर्तन) का स्वरूप वृहत्तर रूप में मुख्यतः इन रूपों में दिखाई पड़ता है-

  1. चिंतन परंपरा में परिवर्तन- ज्ञानोदय
  2. स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व कायम करने के लिए सत्ता परिवर्तन- फ्रांसीसी क्रांति, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन
  3. उत्पादन में तेजी से परिवर्तन (प्रक्रियागत परिवर्तन) – औद्योगिक क्रांति

भारत के संदर्भ में अगर देखा जाए तो इन तीनों प्रकार के परिवर्तनों का प्रभाव परिलक्षित होता है। भारत में पश्चिम के देशों का हस्तक्षेप विभिन्न रूपों में होना इसके लिए उर्वर ज़मीन तैयार की। इन देशों के हस्तक्षेप के पीछे आर्थिक हितों की तुष्टि हेतु भारत को एक उपनिवेश के रूप में विकसित करना था। भारतीय नवजागरण को चिंतन परंपरा में परिवर्तन के रूप में देख सकते हैं। भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की चरणबद्ध एवं व्यापक स्वरूप को सत्ता परिवर्तन के रूप में देख सकते हैं। भारत में हस्तकलाओं का पतन और उद्योगों के विकास में प्रक्रियागत परिवर्तन का रूप देख सकते हैं, जो वर्तमान समय में हरित क्रांति, सूचना क्रांति के रूप में समाज को व्यापक रूप में प्रभावित कर रही है।

हम पाते हैं कि 1857 की क्रांति से लेकर 1947 ई. तक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का व्यापक एवं विशद फलक रहा है। भारत का स्वतंत्रता संघर्ष नामक पुस्तक में बिपिन चंद्र पुस्तक की भूमिका में पहली लाइन यह लिखते हैं कि- “इसमें कोई शक नहीं कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की गिनती आधुनिक समाज के सबसे बड़े आंदोलनों में की जाती है। विभिन्न विचारधाराओं और वर्गों के करोड़ों लोगों को इस आंदोलन ने राजनीतिक रूप से सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया और शक्तिशाली औपनिवेशिक साम्राज्य को घुटने टेकने के लिए विवश किया। “(बिपिन चन्द्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, नवम संस्करण की भूमिका, 1995)

इस लंबे आंदोलन के दौरान यह देखा गया कि इसमें कई सारे विचारों एवं विचारधाराओं के बीच व्यापक अंतर्विरोध रहा है। जैसे हिंसा और अहिंसा के बीच, गरमपंथ और नरमपंथ के बीच, साम्यवाद और समाजवाद के बीच, धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकतावाद के बीच, पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच, पूंजीवाद और गांधीवाद के बीच आदि। सांप्रदायिकतावाद और पूंजीवाद को छोड़ सभी का उद्देश्य ‘स्वतंत्र भारत’ था। इस क्रांति में सबके तरीके अलग- अलग थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख धरा क्रांतिकारी थी, जो सशस्त्र क्रांति द्वारा व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहती थी। क्रांति की अवधारणा को लेकर क्रांतिकारी दलों ने अपने विभिन्न दस्तावेजों में इसे स्पष्ट करते हुए व्यापक जनता के हितों से जोड़ा है।

विविध साहित्यों में क्रांति –

केंद्रीय असेंबली में बम विस्फोट के बाद भगत सिंह जेल में पहुँच गए। भगत सिंह से सेशन कोर्ट ने भी पूछा-” आप का क्रांति से क्या तात्पर्य है?” तब उन्होंने क्रांति का तात्पर्य बताते हुए अदालत में अपने बयान में कहा था- क्रांति से हमारा तात्पर्य व्यवस्था के परिवर्तन से है क्रांति में खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं है और न ही इसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। यह बम और पिस्तौलों का कोई संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा, अभिप्राय है- अन्याय आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन (शिवकुमार मिश्र, गदर पार्टी से भगत सिंह तक, पृ. 122)। ‘एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ ने क्रांति का तात्पर्य किसी देश की मौजूदा सरकार के विरुद्ध विद्रोह जिसके द्वारा राजनैतिक सत्ता में परिवर्तन संभव हो। यह भी स्पष्ट किया गया है कि ज्यादातर क्रांतियों में रक्तपात एवं देशव्यापी युद्ध शामिल रहे हैं।

यदा- कदा रक्तपात के बिना भी सत्ता का हस्तांतरण होता रहा है और उसे भी क्रांति कहा गया है (प्रेम सिंह, क्रांति का विचार, पृष्ठ 2)। ‘चाँद’ के फाँसी अंक में क्रांति के बारे में लिखा गया है-क्रांति एक स्थिर सत्य है.. क्रांति सत्य की सच्ची आवाज है, क्रांति न्याय का खरा रूप है, क्रांति न्याय का निर्दोष मार्ग है और क्रांति ही सामाजिक जीवन का निरोगीकरण है (चाँद: फाँसी अंक, संपादक- आचार्य चतुरसेन शास्त्री, पृष्ठ-9)। भगत सिंह क्रांति के बारे में विचार रखते हुए कहते हैं कि क्रांति का विरोध करने वाले लोग केवल पिस्तौल बम तलवार और रक्तपात को ही क्रांति का नाम दे देते हैं परंतु क्रांति इन चीजों में ही सीमित नहीं है यह क्रांति के उपकरण हो सकते हैं परंतु इन उपकरणों के उपयोग के पीछे क्रांति की वास्तविक शक्ति जनता द्वारा समाज की आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन करने की इच्छा होती है हमारी आधुनिक परिस्थितियों में क्रांति का उद्देश्य कुछ व्यक्तियों का रक्त बात करना नहीं है बल्कि मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की प्रथा को समाप्त करके इस देश की जनता के लिए आत्म निर्णय और स्वाधीनता के अवसर को प्राप्त करना है (यशपाल, सिंहालोकन, पृष्ठ 132)।

भगत सिंह ने अपने वक्तव्य में क्रांति को और स्पष्ट करते हुए कहा है की- हमारा मतलब, अंततोगत्वा एक ऐसी समाज व्यवस्था की स्थापना से है जो भेदभाव और युद्ध जैसे संकटों से मुक्त होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व तो होगा जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्वसंघ पीड़ित मानवता को पूँजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ होगा। आगे अपने बयान में बम विस्फोट के समय वितरित अपने पर्चे द्वारा दी गई चेतावनी याद दिलाते हुए कहा- अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्यवस्था उठती हुई जन शक्ति के आगे रोड़े अटकाने से बाज न आई तो क्रांति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर आगे बढ़ते हुए इस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना होगी (शिवकुमार मिश्र, गदर पार्टी से भगत सिंह तक, पृ. 122-123)। चाँद: फाँसी अंक में कहा कि जिस देश मे सफल क्रांति होती है, उसे परम सौभाग्यशाली देश समझना चाहिए (चाँद: फाँसी अंक, संपादक- आचार्य चतुरसेन शास्त्री, पृष्ठ-9)।

1857 की सशस्त्र क्रांति को, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रथम क्रांति के रूप में पहचान मिली। तब से लेकर स्वतंत्र भारत तक क्रांति की समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा भारत में दिखाई पड़ती हैं। प्रेम सिंह लिखते है- 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना से क्रांति का कम्युनिस्ट (अथवा मार्क्सवादी) विचार व्यापक स्तर पर प्रसारित हुआ। 1935 में कांग्रेसी सोशलिस्ट पार्टी के गठन के साथ क्रांति का लोकतांत्रिक समाजवादी विचार सामने आया। क्रांति के लोकतांत्रिक समाजवादी विचार में आचार्य नरेंद्रदेव और राम मनोहर लोहिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोहिया की सप्त क्रांति की अवधारणा क्रांति के समाजवादी लोकतांत्रिक विचार पर आधारित है। 1969 में कामरेड चारू मजूमदार और कानु सान्याल के नेतृत्व में क्रांति का नक्सलवादी विचार आया। 70 के दशक में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का विचार दिया (प्रेम सिंह, क्रांति का विचार, पृष्ठ 10)।

संपूर्ण विश्व के स्तर पर देखें तो यूरोपीय नवजागरण के साथ क्रांति का सूत्रपात हुआ। इसमें फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांति, अमेरिकी क्रांति बहुत महत्वपूर्ण है। जहां एक ओर फ्रांसीसी क्रांति ने स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व को लेकर सामने आए वही अमेरिकी क्रांति ने जनतांत्रिक मूल्यों को सामने लाया तथा रूसी क्रांति ने साम्यवादी विचार को स्थापित किया। ये सभी क्रांतियां पूरी उपनिवेशी दुनिया में एक नई चेतना का संचार किया। प्रेम सिंह लिखते हैं-‘यूरोप में नवजागरण के बाद 17 वीं शताब्दी से यह धारणा सामने आई कि शासन के स्वरूप और संचालन के बारे में निर्णय का परम अधिकार लोगों का है। रूसों, जॉन लाक, ज्याँ सेम्बेस और कार्ल मार्क्स के राजनैतिक सिद्धांतों ने इस धारणा का पोषण किया’ (प्रेम सिंह, क्रांति का विचार, पृष्ठ 3)। मार्क्स, स्पेन के संदर्भ में क्रांति को परिभाषित करते हुए कहते हैं-‘क्रांति की परिधि में सामंतवाद के विरुद्ध पूंजीपति वर्ग तथा जनसाधारण का संघर्ष और स्पेनी राज्य के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध, दोनों शामिल थे।’ (कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, संकलित रचनाएं खंड 1, भाग 2 पृष्ठ 338)

भारतीय संदर्भ में अगर इन सिद्धांतों की पड़ताल करें तो कमोबेश यही स्थिति थी। पूंजीपति वर्ग और जनसाधारण दोनों कांग्रेस के आंदोलन के साथ शामिल थे और अंग्रेजी राज के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन चला रहे थे। लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन की वैचारिकी के साथ ऐसा नहीं था। वह सामंतवाद के साथ पूंजीवाद के विरुद्ध भी लड़ा गया, जिसके कारण इस दल के पास अंग्रेजी राज के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में हमेशा आर्थिक अभाव बना रहा। इस अभाव से लड़ने के लिए क्रांतिकारियों ने लूट व डक़ैती का सहारा लिया। इस गलत काम को वो जानते हुए भी अपने कार्य को आगे बढ़ाने के लिए ऐसा करने को मजबूर थे। ‘हमें केवल राष्ट्रद्रोहियों, स्वदेशी आंदोलन के विरोधियों, सरकारी गवाहों, शराबियों, व्यभिचारियों, निर्धनों और निर्बल के उत्पीड़कों, जाति एवं राष्ट्र के आर्थिक शोषकों, सूदखोरों और कंजूस महाजनों के घरों को ही लूटना चाहिए… हम शपथ लेते हैं कि हम डकैतियां डालते समय महिलाओं, बच्चों, निर्बल तथा असहाय व्यक्तियों को कभी हानि नहीं पहुंचायेंगे।’ (मुक्ति-2, जुलाई 1972, पृष्ठ 27)

भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन वैश्विक स्तर पर तात्कालिक राजनीतिक आंदोलनों से सतत रूप से समृद्ध होती रही है। ‘नौजवान भारत सभा, के लाहौर घोषणा पत्र में इटली, पोलैंड, जापान, रूस आदि देशों के नौजवानों की वीरता का बखान किया गया। साथ ही, इस पत्र में भारत के युवाओं से यह आह्वान किया गया कि वह भी इससे प्रेरित होकर अपने देश में मुक्ति आंदोलन को चलाएं।

भारतीय राजनीति की मूलभूत समस्याओं में सांप्रदायिक मतभेद एक मूलभूत समस्या रही है। प्रायः सभी राजनैतिक दलों को इसका सामना करना पड़ा है। लाजमी है क्रांतिकारी दल ऐसे संप्रदायवाद और साम्राज्यवाद के घोर विरोधी थे। बाल गंगाधर तिलक लिखते हैं- ‘हमारा स्वराज ना तो महज हिंदुओं का है, न महज मुसलमानों का न ही केवल यह ईसाई स्वराज है, बल्कि यह हर हिंदुस्तानी बच्चे का स्वराज है, चाहे वह हिंदू, ईसाई और मुसलमान हो यह स्वराज भारतीय जनता का स्वराज होगा उसके किसी एक तबके का नहीं।’ (आई. एम. रीजनल और एन.एम. गोल्डर्ब ; सं., तिलक एंड द स्ट्रगल फॉर इंडियन फ्रीडम, पृष्ठ 312)

बिपिन चंद्र लिखते है- ‘इस आंदोलन में अनेक रंगतों वाली राजनीति और कई तरह की विचारधाराएँ साथ-साथ काम कर रही थीं। साथ ही यह विचारधाराएँ राजनीतिक नेतृत्व पर वर्चस्व काम करने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा भी कर रहे थी। इस आंदोलन में जहां सभी आधारहीन मुद्दों पर जोरदार बहस की इजाजत थी, वहीं इसकी विविधता और इसके भीतर आपसी तनावों के कारण इसकी एकता और इसकी प्रहार शक्ति कमजोर नहीं थी। इसके विपरीत, इसकी विविधता और इसमें बहस तथा स्वतंत्रता का वातावरण, इसकी शक्ति के मुख्य स्रोत थे।’ (बिपिन चन्द्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, नवम संस्करण की भूमिका,1995)

क्रांतिकारी विचार का प्रसार:

भगत सिंह ने भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन की वैचारिकी की जमीन तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। अपने निरंतर अध्ययन और चिंतन के बल पर क्रांतिकारी विचारों और सिद्धांत को लोगों के सामने लाया। इस कड़ी में वे निरंतर अध्ययन और विचार परिपक्वता कायम रखने के लिए क्रांतिकारी साहित्य और मार्क्सवाद का गंभीर अध्ययन किया था। सिर्फ भगतसिंह ही नहीं लगभग सभी क्रांतिकारी लगातार अध्ययन करते थे। ताकि वे दुनिया के साहित्य, विचार, परिस्थितियों, घटनाक्रमों को समझ सके। सेडिसन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में क्रांतिकारियों के इस प्रवृत्ति का भी उल्लेख किया है- ‘क्रांतिकारियों ने अपने सहयोगियों के लिए पाठ्य पुस्तकों की बहुत बड़ी श्रृंखला तैयार की थी। राजनीतिक शिक्षा के लिए पुस्तकालय औऱ वाचनालय स्थापित करते थे। ये किताबें एक तो देश प्रेम की भावनाएँ, आत्म बलिदान की भावना, और गुलामी के प्रति विद्रोह पैदा करने वाली थी और दूसरा, अतीत की क्रांतियों और मुक्ति आंदोलनों के अनुभव और सबकों से परिचित कराती थी। तीसरे, इनमें से कुछ किताबें भारत पर ब्रिटिश आधिपत्य की वजह से हो रही आर्थिक क्षति और तबाही की तस्वीर पेश करती थी’। (सेडिशन कमेटी रिपोर्ट, पृष्ठ 142)

शुरुआत में क्रांतिकारी आंदोलनों पर आंतरिक एवं बह्य घटनाओं का प्रभाव रहा है। इरफान हबीब मानते हैं कि- ‘पुनरुत्थान वाद का असर प्रारंभिक क्रांतिकारी आंदोलन पर पड़ा’ (इरफ़ान हबीब, बहारों को सुनाने के लिए, पृष्ठ 24)। प्रारंभिक दौर के क्रांतिकारी नेता धार्मिक प्रवृत्ति के थे। इनमें विदेशी सत्ता व वस्तुओं; पश्चिमी शिक्षा, विचार और जीवन शैली के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना थी। ऐसा भी कहा जा सकता है कि- ‘उनके राष्ट्रवाद ने हिन्दू धर्म से बहुत कुछ प्राप्त किया था’ (वी.पी.एस. रघुवंशी, इण्डियन नेशनालिस्ट मूवमेंट एन्ड थॉट, पृष्ठ 115)।

पुनरुत्थान वादी क्रांतिकारी गतिविधियों के दो केंद्रों के रूप में महाराष्ट्र और बंगाल प्रमुखता से उभड़ा। महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक ने विचार, संगठन और नेतृत्व संभाला वही स्वामी विवेकानंद और अरविंद घोष ने बंगाल में। तिलक की यह मान्यता थी कि हिंदू धर्म एकता और पुनर्जीवन की शक्ति बन सकती है। वह राजनैतिक आंदोलन को गहरे रूप में सांस्कृतिक आधार भूमि देने की योजना निर्मित कर इसके लिए प्रतीक उन्होंने हिंदू धर्म से लिए। इस कड़ी में उन्होंने गीता की उन्होंने राजनैतिक और क्रांतिकारी व्याख्या की। भगवत गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए उपदेश में कर्तव्य की पुकार ने तिलक को गहराई से झकझोरने का काम किया था। साथ ही, उन्होंने देश के युवाओं की चेतना को जगाने के लिए गणपति पूजन, शिवाजी उत्सव को नवीन स्वरूप दिया। (ए.सी. गुप्ता, स्टडीज इन बंगाल रेनेसॉ, पृष्ठ 225)। इन्हीं के भाषणों, लेखों और कार्यक्रमों से प्रेरित होकर चापेकर बंधुओं ने ‘हिंदू धर्म संरक्षिणी सभा’ का गठन किया। ‘युगांतर’ नामक अपने अखबार में वारिंद्र कुमार घोष गीता से उद्धरण देकर लोगों के अंदर दमनकारी ब्रिटिश राज का अंत करने की भावना जागृत कर रहे थे। ‘युगांतर’ के बारे में गोपाल हालदार लिखते हैं कि इसकी हर पंक्ति से क्रांति फूट पड़ती थी और वह बताता था कि किस प्रकार हथियार जुटाकर रुसी ढंग के सशस्त्र विद्रोह, छापामार युद्ध आदि के द्वारा क्रांति की लव जगाए रखी जा सकती है।’ (ऐ.सी. गुप्ता स्टडीज इन बंगाल, पृष्ठ 225)

क्रांति के इस वैचारिकी का विस्तार समाजवाद में परिणत होता है। भगवती चरण वोहरा द्वारा ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ के घोषणापत्र में समाजवाद के मत को स्पष्ट किया गया है- ‘आज भारतीय सर्वहारा की स्थिति बहुत ही नाजुक है। उसके सामने दोहरा खतरा है। उसे एक ओर तो विदेशी पूंजी के आक्रमण का सामना करना है और दूसरी ओर भारतीय पूंजी के कपट पूर्ण आक्रमण का। ऐसी स्थिति में भारतीय पूजी में विदेशी पूंजी से मिलकर काम करने की बृहद प्रवृत्ति दिखाई देती है… इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएँ अब सिर्फ समाजवाद पर टिकी है और सिर्फ यही पूर्ण स्वराज और भेदभाव खत्म करने में सहायक साबित हो सकता है’ (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का घोषणा पत्र, मैं भगत सिंह बोल रहा हूँ, भाग 2, पृष्ठ 356)। शिवकुमार मिश्र ने भी इस संदर्भ में कहा है कि- ‘आज सर्वहारा वर्ग की हालत सबसे ज्यादा खराब है। वह विदेशी और देशी दो-दो पूँजीपतियों से पीड़ित है। देशी पूंजीवाद ब्रिटिश पूँजीवाद के सामने घुटने टेकने के लिए तैयार होता जा रहा है। वह भारतीय जनता के साथ दगाबाजी करके उसे ब्रिटिश हाथों में सौंपने वाला है इसके बदले में वह विदेशी सरकार के साथ हुकूमत के कुछ टुकड़े पाने की आशा बाँधे है। इसीलिए सर्वहारा वर्ग की आशाएँ और आकांक्षाएँ समाजवाद के आसपास ज्यादा केंद्रित है और वही देश को स्वतंत्र बना सकता है और वही समाज के तमाम विभेदों और विशेषाधिकारों को खत्म कर सकता है’ (शिवकुमार मिश्र, गदर पार्टी से भगतसिंह तक, पृष्ठ 126)।

अपने फाँसी के एक दिन पहले 22 मार्च, 1931 को भगत सिंह ने जेल से भेजे अपने संदेश में लिखा है- ‘भारत में संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक अपने लाभ के लिए सामान्य जनता का शोषण करते रहेंगे। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि यह शोषक ब्रिटिश पूंजीपति हैं, या आपस में मिलाप किए हुए ब्रिटिश और भारतीय पूंजीपति, या केवल भारतीय पूंजीपति ही हैं’ (जगमोहन सिंह, चमन लाल; संपादक, भगत सिंह और उसके साथियों के दस्तावेज, पृष्ठ 337)।

पाश्चात्य देशों के मुक्ति आंदोलनों में सबसे ज्यादा 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में लगे क्रांतिकारियों की विचारों एवं रणनीति को गहराई से प्रभावित किया। ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक आर्मी’ ने ऐसा समाज बनाने की संकल्पना की है जिसमें मनुष्य, मानवीय शोषण से मुक्त हो’ (हिंदुस्तान रिपब्लिक आर्मी का घोषणा पत्र, मैं भगत सिंह बोल रहा हूँ, भाग 2, पृष्ठ 3)। ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक आर्मी’ ने रूसी साम्राज्यवादी क्रांति के कुछ ही दिनों बाद अपने नाम में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ दिया तथा पार्टी को जन आंदोलनों एवं मजदूर आंदोलन की ओर उन्मुख किया। इस प्रकार भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में अब सिर्फ बम और आतंक से हटकर रचनात्मक कार्यों में भी अपनी भागीदारी बढ़ाई।

निष्कर्ष :

इस प्रकार, क्रांति मानव जीवन में गहरा एवं व्यापक अर्थ रखता है। क्रांति से सम्बंधित विपुल साहित्यों में यह शोषण, जुल्म और गुलामी के विरुद्ध रास्ता तलाशने की महत्त्वपूर्ण युक्ति बनकर उभड़ता है। इसी वजह से भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन वैचारिक रूप से काफी विकसित हो गया। क्रांतिकारी पूर्ण स्वाधीनता, राष्ट्रीय-सांस्कृतिक एकता, धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र, गैर बराबरी, समाजवाद आदि उच्च मानवीय मूल्यों के प्रति पूर्ण आग्रही एवं समर्पित थे। वे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्रांति द्वारा समाजवादी भारत के निर्माण के सपने को साकार करने में हँसते-हँसते अपने जीवन का बलिदान तक कर दिया। ये उच्च मानवीय मूल्य हमें गहरे अर्थों में अनुकरण करने को प्रेरित करते है।

सन्दर्भ:

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