तबलीगी जमात और मुस्लिम महिलायें

अब्दुल अहद 
पीएच.ड़ी. शोधार्थी
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू)
ईमेल: ahada9210@gmail.com

सार संक्षेप (Abstract)

इस पेपर में हम देखेंगे कि तबलीगी ज़मात में मुस्लिम महिलाओं की क्या भूमिका थी। अर्थात हरियाणा के मेवात से 1920 के दशक में मौलाना मोहम्मद इलयास द्वारा जब यह आन्दोलन शुरू किया गया और धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में फैल गया, तो इस कार्य में मुस्लिम महिलाएँ कहाँ तक सक्रिय थी। साथ ही उन्होंने इस्लाम के नियमों को जानने और उनको फैलाने में कहाँ तक अपना योगदान दिया। हम इस लेख में यह भी देखेंगे कि तबलीगी जमात की गतिविधियों के कारण मुस्लिम महिलाओं के जीवन में क्या बदलाव आये। इसके तहत  हम इस बिंदु का भी विशलेषण करेंगे कि तबलीगी जमात  पितृसत्ता, धर्म, जेंडर से किस तरह अन्तर्सम्बन्धित है।

बीज शब्द

तबलीगी, जमात, महिलाएं, समुदाय, शिया, सुन्नी

आमुख

तबलीगी जमात की शुरुआत क्यों हुई ?

भारत में जब 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में  यह तबलीगी  जमात बनी और उसने अपना काम शुरू किया, तब यहाँ ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्ति का शासन था।  इस शासन के अंतर्गत ब्रिटिश शक्ति ने अंग्रेजी भाषा, पश्चिमी शिक्षा व संस्कृति  और ईसाई धर्म को प्रोत्साहित किया। मुसलमानों का मानना था कि ब्रिटिश शासन के इन पहलुओं के सम्पर्क में आने से उनका दीन व धर्म कमजोर और भ्रष्ट हो जाएगा। अर्थात मुस्लिमों को लगता था कि अपने धर्म व संस्कृति  को इस चुनौती से बचाने के लिए एक मुहिम चलाने की आवश्यकता है।

इसके अलावा, इसके तहत और भी कई कारण समाहित थे जैसे 19वीं शताब्दी के अंत में मुस्लिम समुदाय के विभिन्न पंथों के बीच (शिया, सुन्नी, बरेलवी और अहल-ए-हदीस)  तनाव व वैमनस्य फैलना। बारबरा डेली मेटकाफ ने अपनी पुस्तक Perfecting Women : Maulana Ashraf Ali Thanawi ,s Bhishti Zewar, A Partial Translation With Commentary  में एक स्थान पर दिखाया कि इस काल में  यह पंथीय विभाजन और अधिक फल-फूल रहा था, जिसका मुख्य कारण समाज में अब मुद्रित सामग्री का उपलब्ध होना था। इस काल के पंथीय विभाजन के उदय और विस्तार, धार्मिक रूप से होने वाले बदलाव की केन्द्रीय विशेषता थी। इसका मुख्य घटक विभिन्न पंथों के सिद्धांतों व नियमों से युक्त किताबों का आसानी से मुद्रित रूप में उपलब्ध होना था। इससे इन ग्रन्थों पर लोगों की क्रिया व प्रतिक्रिया सामने आती थी। इससे पंथों के बीच अपने नियमों को सही ठहराने के लिए बौद्धिक रूप से तर्क करने का दौर शुरू हुआ। साथ ही, अंग्रेजी शासन भी इन पंथों के बीच के गैप को और ज्यादा चौड़ा कर रहा था।  चूँकि यह तबलीग का काम सुन्नी पंथ के लोगों द्वारा शुरू किया गया था तो इसने अन्य पंथ के लोगों की आलोचना इस सन्दर्भ में की कि मजारों पर जाकर फूल चढ़ाना, मुहर्रम मनाना आदि कार्य गलत है। मुस्लिम समुदाय के विभिन्न पंथों के बीच उपजे इस तनाव के माहोल को तबलीगी जमात शांत करना चाहती थी और कुरआन शरीफ  हदीस के आलोक में चीजों को करने के लिए प्रेरित कर रही थी।

योगेन्द्र सिकंद ने दिखाया है कि कुछ ऐसे गैर-इस्लामिक पहलू शामिल हुए, जो शरीयत के विरूद्ध थे। इसमें सूफी संतों की मजार पर जाकर की गई कई क्रियाओं को शामिल कर सकते है जैसे : किसी सूफी संत की कब्र के सामने मूहँ के बल लेट जाना, संगीत का आयोजन करना और पुरुषों व महिलाओं का असीमित रूप से घुलना मिलना। सूफियों की सत्ता से कई प्रकार के विश्वास और अन्य क्रियाओं को निभाना, चाहे जीवित या उसकी मृत्यु के बाद, इन सभी को भी निंदनीय माना गया। यह धारणा की कब्र में दफनाए हुए सूफी अभी भी जीवित है और किसी के भी निवेदन पर  खुदा की दया प्राप्त करने के लिए मध्यस्थता कर सकते है को गैर-इस्लामिक मानकर  निंदा की गयी। और इसे शिर्क के समान समझा गया। इस प्रवृत्ति की निंदा करने वालों ने कहा कि यह एक ऐसा आविष्कार है, जिसकी इस्लाम में कोई वैधता नहीं है। इलयास ने देखा कि शरीया के निर्देशों के विभिन्न मापदंडों को व्यवस्थित  कर देना चाहिए और उन सभी क्रियाओं को जो लोकप्रिय सूफीवाद से जुड़ी है और गैर-इस्लामिक है को त्याग देना चाहिए।[1]

जैसे हमने देखा कि तबलीगी जमात शुरू होने के कई कारण थे। इनमें से एक अन्य कारण आर्य समाज नामक संगठन  का स्थापित होना था। इस संगठन  ने उन हिन्दुओं का पुनः धर्मांतरण किया जो मुस्लिम व ईसाई बन गए थे। आर्य समाज के इस कार्यक्रम को शुद्धि  के नाम से जाना गया, बाद में इसका विस्तार, जितने लोगों  को संभव हो सकता था, हिन्दुओं को आकर्षित करने के लिए हुआ। इस स्वधर्मत्याग  को रोकने के लिए आर्य समाज के शुद्धि  के प्रयासों व ईसाई मिशनों और पिछड़े मुस्लिमों को पढ़ाने के लिए मिशनरियों को भी भेजना, के फलस्वरूप केन्द्रीय जमीयत अल-तबलीग अल-इस्लाम की स्थापना की गयी। यह अपने पूना में मुख्यालय और प्रान्तों व जिलों में शाखाओं के साथ एक अखिल भारतीय संगठन था। [2] इस तरह अनेक संस्थानों की स्थापना की गयी।

तबलीगी ज़मात अन्य आन्दोलनों जैसे; खाक्सर्स  और जमात-ए-इस्लामी से इस प्रकार भिन्न था कि इनका स्वरूप धार्मिक व राजनीतिक आन्दोलन का था। मिशनरी धर्म के रूप में, इस्लाम का विचार, राजनीति में मुस्लिमों के घुलने-मिलने के साथ नष्ट होता प्रतीत होता है।[3] लेकिन तबलीगी जमात इस सन्दर्भ में एक अपवाद थी। इस जमात के संस्थापक ने स्वंय को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रखा जैसे; मेटकाफ ने अपने एक लेख में दिखाया है कि तबलीगी जमात की प्रतिक्रिया ऐसे उभरते हुए उलमा की नहीं थी जिसका क्षेत्र राजनीति हो,  बल्कि इन्होंने  एक व्यक्ति के रूप में आंतरिक जीवन को सुधारने वाले जमीनी स्तर के सुधार के देवबंदी कार्यक्रम को इस्लाम की रक्षा की समस्या के समाधान के रूप में देखा।[4]

तबलीगी जमात के बनने से पहले हुए कुछ कार्य :

तबलीगी जमात के बनने से पहले मुस्लिम समुदाय के लोगों में अपने धर्म के प्रति जाग्रति लाने के लिए कई प्रयास पहले ही शुरू हुए। इस सन्दर्भ में पहले प्रयास के रूप में मौलाना राशिद अहमद गंगोही और मौलाना कासिम ननौतवी द्वारा 1867 में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में देवबंद मदरसे की स्थापना की गयी। इस मदरसे में कुरआन शरीफ  व हदीस को पढ़ाया जाता था। इसको पढ़ाने का उद्देश्य यह था कि मुस्लिम समुदाय के लिए ऐसे लोगों को तैयार किया जाए जिनको इस्लाम के दो आधारभूत ग्रन्थ कुरआन शरीफ  व हदीस  की अच्छी जानकारी हो। आवाम के लोगों को और अन्य धर्म के लोगों को तर्क के आधार पर इस्लाम के विभिन्न नियमों की व्याख्या की जाये ताकि मुसलमानों को अन्य धर्मों  से मिल रही चुनौतियों का सामना करने के लिए योग्य बनाया जा सकें। इसीलिए देवबंद मदरसे की विभिन्न शाखाओं की स्थापना उत्तर प्रदेश के अलग-अलग स्थानों में की गयी।

इसके अलावा, मुस्लिम समुदाय के लोगों को अपने धर्म व संस्कृति  के प्रति जाग्रत करने के लिए एक अन्य प्रयास मौलाना अशरफ अली  थानवी ने किया। उनके द्वारा बिहिश्ती जेवर ( स्वर्ग का आभूषण )  नामक पुस्तक लिखी गयी जो कि 1905 में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई।[5] थानवी का यह पुस्तक लिखने का आधार कुरआन  व हदीस नामक इस्लामिक धर्मशास्त्रीय पुस्तकें थी। अर्थात उन्होंने इन पुस्तकों के आधार पर अपनी यह पुस्तक लिखी है। इस  पुस्तक में इस्लाम धर्म के ऐसे सभी आधारभूत बिन्दुओं का वर्णन है, जो कि समान रूप से मुस्लिम समुदाय के सुन्नी पंथ के लोगों पर स्पष्ट रूप से लागू होते है। इस पुस्तक को  सरल भाषा में लिखा गया था क्योंकि मुस्लिम समुदाय के बहुसंख्यक लोग निरक्षर थे। उन निरक्षर लोगों में मुस्लिम लड़कीयाँ और भी ज्यादा पढ़ने-लिखने में पीछे थी।

तबलीगी जमात:

इस जमात या आन्दोलन का आधारभूत उद्देश्य तबलीग रहा है : जिसका अभिप्राय संदेश पहुँचाना,  विशेष रूप से शरीया आधारित मार्गदर्शन करना।[6]

योगेन्द्र सिकन्द और एम.ए. हक दोनों के अलग-अलग विचार तबलीगी जमात और मौलाना इलयास को लेकर है। दोनों ही विद्वानों ने ज्यादा ध्यान अपने अध्ययन में विशेष पहलुओं पर दिया है। लेकिन, फिर भी तबलीगी जमात पर विभिन्न सूफी मतों के प्रभाव पर वह सहमत है। सिकंद ने दिखाया कि  इलयास ने अपने कार्य में कुछ निश्चित सूफी विचारों और गतिविधियों को सम्मिलित किया।[7]

घर-घर जाकर दावत[8] देना, यही वह कार्य होता था जिसमें जमात के लोग मुस्लिम समुदाय के लोगों से प्रत्यक्ष रूप से बातचीत करते थे। इस बातचीत में मुस्लिम समुदाय के केवल उच्च वर्ग के लोगों को ही समाहित नहीं किया जाता था बल्कि आम लोगों को भी इसमें शामिल किया जाता था। [9] कहने का अभिप्राय यह है कि तबलीग के कार्य के लिए जब लोगों का एक समूह मस्जिद से निकलकर निकट के इलाके में गश्त [10] के लिये जाता था और लोगों से मुलाक़ात करता था तो यह नहीं देखा जाता था कि वह अमीर है या गरीब, छोटी जाति का है या बड़ी जाति का, भाषा कौन सी बोलता है आदि चीजों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था बल्कि उनसे  मुलाकात के दौरान नमाज, दीन, तबलीगी काम आदि के बारे में बताया जाता है। उनसे आग्रह किया जाता है कि अपने जीवन में इस्लाम की बातों का एह्त्माम करें और अपने दीन पर चलने के लिए विचार बनाये।

योगेंद्र सिकंद ने मुशीरुल हसन द्वारा सम्पादित पुस्तक में लिखे अपने लेख  में दिखाया कि तबलीगी ज़मात जो एक मिशनरी आन्दोलन था जब हम इस ज़मात की तुलना दरगाहों में सूफी पंथों के नियंत्रित व गहरे पदानुक्रम के सन्दर्भ में करते है तो तबलीगी जमात की अभिव्यक्ति धार्मिक सत्ता के लोकतांत्रिक रूप में  होती है। सभी मुस्लिमों को इस्लाम का ज्ञान पाने और इस्लाम के आध्यात्मिक साधनों तक पहुँच पाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था और अब यह सूफियों के उच्च पदों या उलमाओं के एकाधिकार से संचालित नहीं होती थी। कहने का मतलब यह है कि तबलीग को  मात्र उलमाओं और सूफियों का कर्तव्य नहीं समझा जाता था।  सभी मुसलमान दीन के इस काम में सक्रिय हो सकते थे।[11]

तबलीगी जमात में मुस्लिम महिलायें:

अपने विश्वास के नवीकरण और सुधार मिशन में सफलता प्राप्त करने के लिए, तबलीगी जमात पुरुषों और महिलाओं के बीच एक साझा जेंडर की जिम्मेदारी को बढ़ावा देता है, लेकिन पुरुष और महिला गतिविधियों के तरीके अलग हैं (मेटकाफ, 1998) । साथ ही इसके अंतर्गत हम देखते है कि,  महिलाओं को पुरुषों के साथ काम करने और पुरुष मार्गदर्शन में गतिविधियों को करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ।[12] तबलीगी जमात के संस्थापक मौलाना मुहम्मद इलयास ने महिलाओं के बीच दावत के कार्य को करने के लिए इस जमात के शुरुआती वर्षों से ही इसे प्रोसाहित किया। उन्हीं के प्रोत्साहन के बाद, मौलाना अब्दुस सुब्हान की पत्नी (मौलाना सुब्हान नई दिल्ली के निजामुद्दीन में मौलाना इलयास के स्कूल के प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे)  ने दिल्ली में महिलाओं के बीच यह कार्य आरम्भ किया और महिलाओं की एक जमात को बनाया जिसके सदस्य पुरुषों की जमात के ही निकट के सम्बन्धी थे।[13] कहने का मतलब यही है है कि मुस्लिम महिलाएँ, मुस्लिम पुरुषों के साथ इसके  आरंभ से ही जमात में जाने लगी थी। ऐसी जमात को मस्तुरात[14] कहा जाता है। एस.अबुल हसन अली नदवी ने  अपनी पुस्तक में मौलाना इलयास से मत लेते हुए लिखते है कि जिस तरह जीवन में किसी अन्य कार्य को सीखना पढ़ता है और उसमें समय व मेहनत दोनों लगती है उसी तरह दीन के काम को भी सीखा जाता है। इसको सीखने का सबसे बढ़िया जरिया तबलीगी जमात में निकलना है। अर्थात जमात में ही निकलकर हम दीन सीख सकते है और दूसरों को भी सिखा सकते है। इन्हीं बातों को आजकल मस्तुरात और मर्दों दोनों ही तरह की जमातों में पालन किया जाता है।

जमात में महिलाओं के जाने के कुछ नियम व्याप्त है। पुरुषों की जमात जहाँ अधिकतम 5 माह तक जा सकती है वहीं  औरतों की जमात 2 माह तक ही जा सकती है। इस तरह की 5 माह व 2 माह की जमात को बैरून ( यानी विदेश जाने वाली जमात ) भी कहा जाता है। जमात में महिलाएं किसी महरम (ऐसे निकट सम्बंधी जिनसे इस्लाम के कानून के अनुसार निकाह करने की अनुमति नहीं है)[15]  के साथ ही  जा सकती है। महरम के अंतर्गत वो सभी व्यक्ति शामिल है जिनसे इस्लाम में पर्दा करने का उनको हुक्म नहीं आया है जैसे; शोहर, बेटा, बाप और भाई आदि। कहने का मतलब यही है कि महिलायें केवल इन्हीं व्यक्तियों के साथ जमात में जा सकती है।

हम देखते है कि, जब मुस्लिम पुरुष तबलीग के काम पर जाने की योजना बनाते है और जाने का प्रबंध करते है तो इसके अंतर्गत महिलाओं की कोई भूमिका नहीं होती। जमात किस स्थान पर जाएगी, कितने लोग इसमें शामिल होंगे, जमात का समूह किस तरह जायेगा। इन सभी बातों का निर्णय जमात में जाने वाले, मुस्लिम पुरुष ही अपने इलाके की मस्जिद में मशवरा[16] करके लेते है। इस मशवरा में ही एक पत्र पर उन सभी पुरुषों व महिलाओं का नाम लिख दिया जाता है, जिनको जमात में जाना होता है। महिलाओं का नाम साथ के किसी पुरुष के साथ लिखा जाता है। अर्थात मुस्लिम महिलाओं को अकेले जमात में जाने की आज़ादी नहीं दी गयी है। इससे पता चलता है कि मुस्लिम महिलाओं को कितना अधिक पुरुषों पर निर्भर बनाया गया है।

जमात पर निकलने के भी अपने नियम है। घर से निकलते ही उनको दो समूहों में बाँट दिया जाता है। एक समूह पुरुषों का होता है और दूसरा महिलाओं का। हालाँकि दोनों ही समूह साथ-साथ यात्रा करते है, लेकिन दोनों को अलग-अलग समूह बनाकर यात्रा करनी होती है। जहाँ पुरुष मस्जिदों में अपना पढ़ाव डालते है, वहीं महिलायें इलाके के किसी मुकामी[17] के यहाँ पर रुक जाती है। किसी मुकामी के यहाँ पर रुकने के बाद उनको वह सभी निर्देशों का पालन करना होता है जिनको मस्जिद में ठहरी जमात के अमीर  (नेता[18]) द्वारा मशवरा करके तैयार किया जाता है।  इन निर्देशों में महिलाओं में से किनको कौन-कौन से कार्य करने है उनका ज़िक्र होता है। अर्थात तालीम  किसको करनी है व कितने समय तक करनी है, खाने का प्रबंध में  किस- किस को हाँथ बंटाना है ( इसको खिदमत बोला जाता है ) व खाने में क्या चीज़ बननी है  (अगर किसी मुकामी के यहाँ पर खाने का इन्तिज़ाम नहीं होता है तो उनको खुद ही इसका प्रबंध करना होता है) आदि। इन सभी बिन्दुओं का वर्णन उस पत्र में होता है जिनको मस्जिद में बैठकर तैयार किया जाता है।

इसके अलावा हम देखते है कि, जमात की महिलाएँ केवल अपने साथ गये परिवार के सदस्य के साथ ही बातचीत कर सकती है। वह भी उनको अलग कमरे में बैठकर सीमित समय के लिए ही करनी होती है। उस महिला को अगर किसी भी चीज़ की हाजत (किसी भी तरह की माँग) व परेशानी होती है तो वह अपने उस परिवार के सदस्य से साझा कर सकती है। कहने का मतलब यह है कि मस्तुरात में जाने के बाद उनको सीमित रूप से और सीमित व्यक्तियों के साथ ही संचार करना होता है। यहाँ पर मस्तुरात की जमात की महिलाओं के नामों को भी उजागर नहीं किया जाता। अर्थात महिलाओं की गोपनीयता का पूरी तरह ख्याल रखा जाता है।

इतनी पाबंदियो व कड़े नियमों के बावजूद भी जिसमें पितृसत्तात्मक मानसिकता और पर्दे का एह्त्माम (पालन) स्पष्ट   दिखाई देता है, जमात की महिलायें अपने मूल मकसद पर हमेशा ध्यान केन्द्रित करती है। बारबरा अपने एक लेख में लिखती है कि फिर भी महिलायें जमात में शामिल होती है और यहाँ यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि तबलीगी जमात में महिला व पुरुष दोनों ही के सामाजिक भूमिका के लिंगीय सन्दर्भों पर विचार करे।[19] जहाँ पुरुष मुकामी या स्थानीय मुस्लिम पुरुषों के बीच दीनी-दावत को फैलाने का कार्य करते है वहीं महिलायें स्थानीय महिलाओं के बीच यह कार्य करती है। अपने मिशनरी कार्य में वह लोगों को हदीस, कुरआन, पैगम्बर मोहम्मद साहब की सुन्नतों[20], इस काम के ऊँचे दर्जे के बारे में और छह बातों के पालन के बारे में बताते है।

मस्तुरात की जमात में एक मुख्य कार्य तालीम[21] का पाठ करना होता है। जब यह  पाठ होता है तो इसके लिए  अन्य औरतों को भी पास के मोहल्ले से बुलाकर एकात्रित कर लिया जाता है।  उनको यह तालीम का पाठ सुनाया जाता है। तालीम के अंतर्गत कुरान  व हदीस  की बातों का वर्णन किया जाता है। यह तालीम  का पाठ फजाएल –ए -आमाल, फजाएल-ए-सदकात, तबलीगी निसाब  (तबलीगी पाठ्यक्रम)  नामक पुस्तकों में से किया जाता है। मौलाना मोहम्मद ज़कारिया कंधालवी (1898-1982) ने व्यापक रूप से यह पुस्तकें मौलाना इलयास के निवेदन पर 1950 के दशक में लिखी थी,  मौलाना इलयास उनके के चाचा  थे। मौलाना ज़कारिया ने एक शेख या हदीस के मुख्य शिक्षक के रूप में सहारनपुर के मज़ाहिर उल-उलूम में अपनी सेवाएँ भी दी थी। [22]

फिर उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह औरतें भी अपने घरों में प्रत्येक दिन अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर यह पाठ करें। साथ ही, उनसे यह भी आग्रह किया जाता है कि प्रत्येक सप्ताह मोहल्ले में होने वाली तालीम में भाग लें। बारबरा मेटकाफ लिखती है कि महिलाओं को जमात में न केवल शिक्षा व धर्मपरायणता सीखने के लिए प्रोसाहित किया जाता है बल्कि उन्हें तबलीग के कार्यों से जुड़ने के लिए भी निमंत्रित किया जाता है जब तक वह गैर महरम पुरुषों के साथ मिश्रित नहीं हो जाती। उनसे यह भी आशा की जाती है कि अन्य महिलाओं और परिवार के सदस्यों के बीच वह दावत के कार्यों को करें।[23] ऐसा इसलिए बोला जाता है  क्योंकि इन बातों पर अमल करने से उनको दुनिया में भी फायदा होगा और आखिरत (मौत के बाद वाली जिंदगी) में भी। अर्थात दुनिया में इन कामों को करने से  परिवार में मुहब्बत, सुख, शान्ति (सुकून), समृद्धि, और कारोबार में बरकत (लाभ) प्राप्त होगी।

इसके अलावा हम यह देखते है कि तबलीगी जमात के माध्यम से उनको यह भी पता चलता है कि उनके द्वारा निभाई जाने वाली रस्मों और रिवाजों का क्या औचित्य इस्लाम के अनुसार है या नहीं। जमात का एक उद्देश्य यही है कि जो कार्य हम इस्लाम के विरुद्ध कर रहे है उनको नहीं करे बल्कि उनको इस्लाम के बिन्दुओं के आलोक में रहकर किर्याशील करें। अपने जीवन को दीन पर अमल करने वाला बनाये। गलत रीति-रिवाजों से खुद को दूर रखें।

इसके अलावा, जमात की औरतें  अन्य महिलाओं से छह बातों के पालन करने का भी का आग्रह करती है और उनका प्रयास यह भी रहता है कि वह महिलायें अपने जीवन में इन बातों को व्यावहारिक रूप से अपनाएँ। इन छह बातों में, कलमा, नमाज, इल्म[24] व ज़िक्र[25], इकराम-ए-मुस्लिम[26], तशीह (इखलास)-ए-नियत[27], और तफ्रीघ (दावत)-ए-वक़्त[28] शामिल है। इन छह बातों को जमात में सीखने व सिखाने का कार्य बराबर चलता रहता है।

इसके अलावा, औरतों को कुरआन शरीफ  पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हमारे पास कई ऐसे उदाहरण है जिसमें प्रत्येक उम्र की औरतों ने कुरआन  पढ़ना व ऊर्दू में भिन्न-भिन्न पुस्तकों को पढ़ना तबलीग के कार्य की मदद से सीखा। तबलीग के कार्य में 14 या 15 साल की आयु के बाद के लड़के व लड़की शामिल होते है। और फिर इस कार्य से अपने पूरे जीवन तक जुड़े होते है। साथ ही, इसमें विवाहित और अविवाहित दोनों ही तरह की पुरुष व महिलायें  भाग लेते है। यह कार्य उन महिलाओं के जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव ले कर आया जो कभी मदरसे नहीं गयी, उनका पढ़ने का प्रबंध घरेलू रूप से किसी आपा[29] को लगाकर भी नहीं किया गया  और ना ही कभी स्कूल गयी। ऐसी महिलाओं ने तबलीग की मदद से इस्लाम के आधारभूत बिन्दुओं के बारे में ज्ञान हासिल किया। वास्तव में, हम कह सकते है कि ऐसी अशिक्षित महिलाओं को दीन सिखाने के लिए व दीन में विश्वास पैदा करने के लिए और इस्लाम के नियमों के प्रति एक तर्क संगत नजरिया अपनाने के लिए (जिसमें मुख्य रूप से यह पता लगाया जाता है कि क्या चीज़ इस्लाम सम्मत है या इसके खिलाफ) एक सशक्त मंच का कार्य इस ज़मात ने किया।

अशिक्षित महिलाओं के अलावा कई ऐसी महिलायें भी जमात के सम्पर्क में आई जिनको  इस्लाम के कई नियमों के बारे में आधी-अधूरी जानकारी थी या गलत जानकारी थी। जैसे उनको नमाज पढ़ने का सही तरीका मालूम नहीं था व उनको नमाज में पढ़ी जाने वाली सूरतों और दुआओं में गलतियाँ थी तो उनको ज़मात की औरतों द्वारा सही कराया जाता है। ऐसा उनको कुरआन  व हदीस  से सन्दर्भ ले कर ठीक कराया जाता है। इससे पता चलता है कि ज़मात ने मुस्लिम समुदाय की भिन्न-भिन्न औरतों को दीन को सिखाने का एक अच्छा अवसर प्रदान किया। कुरआन  व हदीस  की इस जानकारी ने उनमें एक चिंतन पैदा किया। यह चिंतन हम देखते है कि उन महिलाओं को सशक्त भी बनाता है। उनको इस बात का ज्ञान हो जाता है कि इस्लाम में उनके क्या-क्या अधिकार है। इस तरह की जानकारी के बाद वह इन अधिकारों को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करती है। वह जीवन के बहुत सारे क्षेत्रों में स्वतंत्र हो कर निर्णय लेने के बारे में विचार करती है जैसे; विवाह, आधुनिक शिक्षा, नौकरी, खेल-कूद, सम्पत्ति का वितरण इत्यादि में। इन अधिकारों ने न केवल पितृसत्ता की मानसिकता को बल्कि मुस्लिम समुदाय में व्याप्त जाति की बेड़ियों को भी कमजोर किया है। इस्लाम की धर्मशास्त्रीय पुस्तकों की इस जानकारी ने मुस्लिम लड़कियों को अन्य जाति के लड़कों से निकाह करने के लिए भी विचार दिया है। मुस्लिम समुदाय में भी समान जाति में ही निकाह करने का रिवाज़  है। अर्थात वर्तमान मुस्लिम समाज में निकाह के लिए जातियों के आधार पर भेदभाव किया जाता है। शरीयत इस रिवाज़ के खिलाफ है। जब लड़कियाँ  इस नियम के प्रति जागरूक होती है तो वह अपने परिवार के विरुद्ध जाकर शादी का निर्णय स्वंय कर लेती है। ऐसे कई उदाहरण मुस्लिम समुदाय में हमको आसानी से देखने को मिल जाते है। यहाँ  हम  ऐसी  ही तीन  केस  स्टडी  का  विश्लेषण करेंगे। एक अध्ययन, एक ऐसी लड़की सायरा  का है जिसने तबलीग के माध्यम से जाग्रत हो कर अपने निकाह का निर्णय स्वंय अपनी मर्जी से लिया। दूसरा अध्ययन, एक ऐसी मुस्लिम महिला का है जिसने अपनी सम्पत्ति का वितरण अपने  बेटों व बेटियों में समान रूप से करने का निर्णय लिया। तीसरा अध्ययन, इस बारे में है कि तबलीगी जमात के सभी नियमों के पालन करने के साथ ही आयत ने अपनी आधुनिक उच्च  शिक्षा भी प्राप्त की।

यह स्टडी एक ऐसी लड़की की है जिसका नाम सायरा  (नाम बदल दिया गया है) है। सायरा  ने शुरुआत में देवबंद में तालीम ली और बाद में अपने घर से कुछ दूर एक मदरसे से  आलिमा  (इस्लामिक शोधकर्ता) का कोर्स किया। वह बुर्के में ही मदरसे का आना जाना करती थी। वह आलिमा के कोर्स के साथ तबलीग के कामों में भी स्वंय को व्यस्त रखती थी। तबलीग की जमात कई बार उनके घर पर भी आकर रुकती थी। अपनी अम्मी के साथ प्रत्येक सप्ताह तालीम में जाया करती थी। अपने घर पर भी वह तालीम  किया करती थी। कहने का तात्पर्य यह है कि वह मदरसे में भी जाती थी और तबलीग के कार्य भी करती थी। सायरा  को जो जानकारी कुरआन  व हदीस के बारे में  मदरसे व तबलीग के माध्यम से जो बात पता चली थी उसमें एक बात यह भी थी कि अपनी लड़की के विवाह के लिए अनुमति उसके अभिभावक को उससे भी  लेनी चाहिए और दूसरा इन धर्म ग्रन्थों के अनुसार विवाह मुस्लिम समुदाय की किसी भी जाति में हो सकता है। जब सायरा  के परिवार वालों ने उससे विवाह की बात कही तो उसने स्पष्ट मना कर दिया और कहा  कि में अपनी मर्जी से एक अन्य मुस्लिम जाति के लड़के से शादी करूँगी। हालाँकि, उसने अपने परिवार वालों को इस विवाह पर मनाने का प्रयास किया। अंततः  सायरा  ने एक निम्न जाति के लड़के से विवाह का निर्णय स्वंय के स्तर पर लिया। इस तरह के निर्णय लेने के बारे में उसके पीछे मुख्य शक्ति कुरआन  व हदीस  की उसको जानकारी थी। वह अपने परिवार वालों से बराबर अपने विवाह के मुद्दे पर बहस किया करती थी। और कहती थी कि इस्लाम की पवित्र पुस्तकों में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि कोई लड़की अपनी मर्जी से निकाह किसी अन्य निम्न मुस्लिम जाति के लड़के के साथ नहीं कर सकती है। कई बार उसने अपने परिवार वालों का विरोध किया। जब सायरा  की बात नहीं सुनी गयी तो उसने उस लड़के से भागकर निकाह कर लिया। और उसके अभिभावक कुछ भी नहीं कर सकें। क्योंकि उनके पास अब सायरा को रोकने का कोई अधिकार नहीं बचा था ना तो भारतीय कानून के अनुसार और ना ही शरीयत  के अनुसार। इस अध्ययन का निहितार्थ यह है कि जैसे कई विद्वान कहते है कि तबलीग का कोई असर पितृसत्ता और उसके बने लिंगीय सम्बन्धों पर मुश्किल से ही पढ़ा है सही नहीं है। जैसे बी.सिद्दीकी ने अपने एक लेख में दिखाया कि तबलीगी ज़मात ने पितृसत्तात्मक समाज को तोड़ने में कोई भूमिका मुश्किल से ही निभाई, सही नहीं है। सायरा का अध्ययन इस को गलत साबित करता है। हमें तबलीग पर मस्तुरात के अपने अध्ययन को और ज्यादा व्यापक नजरिए से देखने की आवश्यकता है।

एक अन्य केस स्टडी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले के एक गाँव  नाहल की है। यह गाँव मेरी नानी का है। मेरी नानी जिसको हम आपा  भी कहते है तबलीग के कार्यों से बराबर जुड़ी रहती है। अर्थात वह मस्तुरात की जमात में भी जाती है  और तालीम में भी भाग लेती है। जब उनको इन कार्यों के माध्यम से यह पता चला कि  उनकी सम्पत्ति पर जितना अधिकार उनके बेटों का है उतना ही उनकी बेटियों का भी है तो उन्होंने यह निर्णय लिया कि वह सम्पत्ति का वितरण  अपनी बेटियों के मध्य भी करेंगी। इसके माध्यम से भी हमें पता चलता है कि तबलीग का प्रभाव कैसे मुस्लिम महिलाओं पर पढ़ता है। इस प्रकार की इस्लामिक शिक्षा उन्हें समाज में बनें लिंगीय सम्बन्धों से परे जाकर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।

तीसरी केस स्टडी  उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में सिकरोड़ा गाँव की है। इस गाँव में मुस्लिम जनसंख्या ही बहुसंख्यक रूप से रहती है। जहाँ तबलीग का काम बड़े सक्रीय  रूप से होता है। जब मैंने 20 साल की आयत (नाम बदल दिया गया है) नाम की लड़की से उसकी तबलीग के कार्यों के बारे में पूछा तो उसने विस्तार से काफी कुछ बताया। उन्होंने बताया कि उनको पहली मर्तबा मस्तुरात की जमात में 3 दिन के लिए नवंबर 2018 में भेजा गया। उनके इस जमात में चुने जाने के पीछे एक तर्क निहित है। जब उनके इलाके से इस प्रकार की जमात तैयार हो रही थी तो उसमें एक भी नाम ऐसा नहीं आया जिनको ऊर्दू व हिन्दी पढ़नी आती हो। तबलीग के इस कार्य में किसी एक सदस्य का  ऊर्दू व हिन्दी को  लिखने व पढ़ने वाला ज़रूर होना चाहिए। आयत को चूँकि ऊर्दू व हिन्दी पढ़नी आती थी तो उसका नाम जमात में शामिल कर लिया गया। 3 दिन लगाने के बाद आयत ने अपने जीवन में पर्दे का पालन करना शुरू कर दिया। उसके बाद वह कहीं भी जाती पर्दे के साथ ही जाती। जमात में से आने के बाद भी वह तबलीग के कार्यों से जुड़ी रही, जैसे; अपने घर प्रतिदिन तालीम  करना और प्रत्येक सप्ताह होने वाली तालीम में भाग लेना । वह बताती है कि तालीम के ही कारण हमको घर से कुछ दूर जाने का मौका मिलता है। अन्यथा उनका पूरा सप्ताह घर के ही कार्यों में व्यतीत हो जाता है। अर्थात तबलीग के इस कार्य की माध्यम से उनको अपने पड़ोस की औरतों से मिलने का और घर से बाहर जाने का अवसर मिलता है। इसके अलावा, आयत ने आधुनिक शिक्षा पर भी अपने तबलीग के कार्यों के साथ बराबर ध्यान दिया। कहने का अभिप्राय यह है कि तबलीग के इन कार्यों ने उसे कई अवसर प्रदान किए। पर्दे का सहारा लेकर वह अब कहीं भी जा सकती है। परिवार के  पुरुषों को लगता है कि पर्दा उनकी बेटियों और औरतों को सुरक्षा प्रदान करता है। इसीलिए, पुरुष उनको बाहर जाने के लिए मना नहीं करते। पुरुष ही नहीं बल्कि परिवार की औरतें भी अपनी बेटीयों को मना नहीं करती। इस प्रकार के बदलाव ने  पितृसत्तात्मक  समाज की मानसिकता पर कैसा प्रभाव डाला इस पर और अधिक अध्ययन की आवश्यकता है।  लेकिन यह स्पष्ट है इससे मुस्लिम महिलाओं के जीवन पर बहुत हद तक असर पढ़ा। 

19वीं शताब्दी में मुस्लिम महिलायें और अब:

अब हम देखेंगे कि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति में तबलीगी जमात की गतिविधियों के कारण आया बदलाव 19वीं शताब्दी की स्थिति से किस प्रकार अलग था। 19वीं शताब्दी के आरंभ  में जहाँ उच्च समूह अर्थात अशराफ  जाति की मुस्लिम महिलाएँ उत्तरी भारत में मुख्य रूप से  घर की चारदीवारी में रहा करती थी। इन महिलाओं के लिए घर पर ही पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था की  जाती थी। यह व्यवस्था उस्तानियों  और आपाओं  को महिला शिक्षक के रूप में नियुक्त करके की जाती थी। इनको ज़नाना  (महिलाओं ) की शिक्षक भी बोला जाता था। लेकिन गेल मिनोल्ट अपने ग्रन्थ में लिखती है कि यह पूरी व्यवस्था अब समाप्त होती जा रही थी क्योंकि ब्रिटिश सरकार देशीय शिक्षा पर मुश्किल से ही ध्यान दे रही थी। इस वजह से इस तरह की शिक्षक अब नहीं मिल पा रही थी। अब उनके पास दो ही विकल्प थे; पहला,  लड़कियों के देशीय स्कूल में भेजा जाए लेकिन पर्दे के साथ उच्च जाति की लड़कियों को स्कूल भेजना मुश्किल था और  प्रतिदिन इस तरह उनको भेजने की अनुमति देना और ज्यादा कठिन था। दूसरा, मिशनरी स्कूलों का विकल्प था लेकिन धार्मिक प्रतिबद्ध मुसलमान वहाँ भेजने से बचते थे। इसका समाधान तभी निकल पाया जब 19 वीं शताब्दी के अंत में विभन्न शिक्षित मुस्लिमों ने इस बारे में लिखना शुरू किया और फिर इस दिशा में व्यावहारिक रूप से कार्य भी किए।[30]

इसके अलावा, नसरीन अहमद ने अपने अध्ययन में दिखाया कि 1860 के बाद जो परिवार अपनी लड़कियों को स्कूल भेज रहे थे वह अशराफ जाति या उच्च जाति से नहीं थे। लेखिका इसका कारण मोहम्मडन एजूकेशनल कांफ्रेंस की प्रोसीडिंग्स से व्यक्त करते हुए लिखती है कि अशराफ  स्कूलों में अपनी लड़कियों को भेजने से इसलिए बच रहे थे क्योंकि उनमें गरीब परिवारों की लड़कियाँ पढ़ने आती थी और वह नहीं चाहते थे कि उनकी लड़कियों इनके साथ घुल-मिल जाए और दूसरा, उन स्कूलों में धार्मिक निर्देशों का भी ज्ञान नहीं प्रदान किया जाता था।[31]  लेकिन वर्तमान समय में हम देखते है तबलीग के कामों ने मुस्लिम समुदाय में भेदभाव की इस सरंचना को कमजोर किया है। जब इसके विभिन्न काम आयोजित किये जाते है तो इसमें सभी प्रकार के भेदभावों को मिटाकर सभी से दीन की दावत को फैलाने का आग्रह किया जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि तबलीग ने विभिन्न सामाजिक असमानताओं को तोड़ने में अपनी भूमिका निभाई है।  

19 वीं शताब्दी में उच्च समूह की मुस्लिम महिलाओं का घर से बाहर मुश्किल से ही आना-जाना होता था। बाज़ार से कुछ सामान खरीद कर स्वंय नहीं ला सकती थी। मुस्लिम समुदाय में उच्च वर्ग के परिवार अपनी लड़कियों को मदरसे में भी मुश्किल से ही पढ़ने के लिए भेजते थे। लेकिन अब हम देखते है कि स्थिति में महत्वपूर्ण रूप से बदलाव आया है। यह बदलाव तबलीगी जमात की विचाधारा व गतिविधियों के कारण तो  आया ही है। साथ ही, लड़कियों के लिए मदरसों का व्यापक रूप से स्थापित होना और ज्ञान प्राप्त करने के नए-नए स्रोत भी इसके लिए ज़िम्मेदार है जैसे:  सोशल मीडिया, इंटरनेट आदि  भी। बारबरा डेली मेटकाफ ने अपनी पुस्तक में जैसे दिखाया था कि 19वीं शताब्दी के अंत में मुद्रित सामग्री के व्यापक रूप से उपलब्ध होने से विभिन्न मुस्लिम पंथों को अपने विचारों को समाज में विस्तार करने का एक सशक्त माध्यम मिला। लेकिन अब हम 21वीं शताब्दी के शुरूआती दशकों में देख रहे है कि ज्ञान व सूचना के नए-नए स्रोत उपलब्ध होने से विभिन्न मुस्लिम पंथ तो मजबूत हो ही रहे है साथ में मुस्लिम महिलाओं के जीवन में भी बदलाव आया है। 

लेकिन हमारा यहाँ पर सन्दर्भ तबलीगी जमात ही है। इस जमात ने समाज के पारम्परिक माने जाने वाले समूह को आधुनिक समय के साथ तालमेल बैठाने में कुरान  व हदीस की व्याख्या को और अधिक व्यापक नजरिए से देखा है। उन्होंने भलीभांति इस समय में सामने आने वाले विभिन्न सवालों के  जवाब को खोज निकाला है। जिसने  मुस्लिम लड़कियों व महिलाओं में एक नई चेतना  को पैदा किया है। मस्तुरात जमात के माध्यम से वह इस्लाम की शिक्षाओं के विस्तार के लिए देश-विदेश में भी घूम सकती है। किसी मेट्रोपोलिटन शहर में शोपिंग के लिए जा सकती है। आधुनिक शिक्षा की प्राप्ति के लिए विज्ञान, इंजीनियरिंग, सामाजिक विज्ञान व कला के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में दाखिला ले रही है। हम आसानी से हिजाब लगाए और बुर्का पहने मुस्लिम लड़कियों को दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, जवाहरलाल लाल नेहरु विश्वविद्यालय और इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अध्ययन करते देख सकते है। कहने का मतलब यह है कि पर्दे का एक पूरा सन्दर्भ  ही बदल गया है। अब का सन्दर्भ  पर्दे के साथ कई आधुनिक गतिविधियों को समावेशित किए हुए है।  

निष्कर्ष:

हमने अपने अध्ययन में देखा कि 1920 के दशक से शुरू हुआ तबलीग का कार्य अब व्यापक रूप से फैल चुका है। यह इस्लाम के बारे में ज्ञान प्रदान करने का एक उपयुक्त माध्यम मंच बन चुका है। यह ज्ञान मुस्लिम महिलाओं को अपना जीवन जीने में एक तर्कशक्ति प्रदान कर रहा है। जैसे हमने ऊपर किए अपने अध्ययन में दिखाया कि कैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई गाँवों में तबलीग के कार्य का विस्तार हो रहा है और इस कार्य के कारण उनके जीवन में बदलाव हो रहा है। इस बदलाव को और अधिक स्प्ष्ट करने के लिए हमने वर्तमान स्थिति की तुलना 19 वीं शताब्दी से की है।

हमारे अध्ययन से यह तो पता चला है कि बदलाव तो हो रहा है और यह समाज में स्थापित विभिन्न संस्थानों से टकरा भी रहा है जैसे; पितृसत्ता, जाति व्यवस्था, आधुनिक शिक्षा और मेट्रोपोलिटन संस्कृति इत्यादि से। लेकिन इन विभिन्न संस्थानों में यह बदलाव किस तरह दिख रहा है उसके लिए और अधिक धरातलीय स्तर पर शोध की आवश्यकता है तथा उसके बाद ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते है।

सन्दर्भ सूची :

द्वितीयक स्रोत ;

पुस्तकें-     

  1. Daly,Barbara, Metcalf, Perfecting Women: Maulana Ashraf Ali Thanawi,s Bhishti Zewar, A Partial Translation With Commentary, University Of California Press, 1990.
  2. Minault, Gail, Secluded Scholars:Women’s Education And Muslim Social Reform In Colonial India, Oup, Delhi, 1998.
  3. Ahmed, Safdar, Reform and Modernity in Islam, B.Tauris, London, 2013.
  4. Anwar ul-Haq, S. The Faith Movement of Maulana Muhammad Ilyas, George Allen and Unwin, London, 1972.
  5. Daly Metcalfe, Barbara, Islamic Revival In British India: Deoband, 1860- 1900 A.D. Princeton University Press, 2014.
  6. Ahmed, Nasreen, Muslim Leadership and Women’s Education : Uttar Pradesh, 1886-1947, Three Essays Collective, 2012.
  7. Minault, Gail. Gender, Language, and Learning: Essays in Indo-Muslim Cultural History, ISBN, New Delhi, 200
  8. Hasnain, Nadeem (ed.), Sikand, Yogider, Islam and Muslim Communities in South Asia, Serial Publications, New Delhi, 2006.
  9. Hasan, Mushirul (ed.), Living with Secularism : The Destiny of India’s Muslims, Manohar Publishers & Distributers, New Delhi, 2007.
  10. Nadeem, Hasnain,(ed.) Sikand, Yoginder, The Tablighi Jamat in Post-1947, Mewat, Serial Publications New Delhi, 2006.
  11. Jeffrey, Robin & Sen, Ronojoy (ed.) Being Muslim in South Asia: Diversity and Daily Life, OUP, India, 2014.
  12. Maulvi Sayed Abul Hasan Ali Nadvi, Hazrat Maulvi Mohmmad Ilyad Ki Dini Dawat, Rasheed Publications, New Delhi, 2008.(In Urdu Language)

आर्टिकल-

  1. Barbara, Metcalf,, Islam and Women : the case of tablighi jamaat , SEHR, vol. 5, 1996.
  2. Siddiqi, Bulbul, Reconfiguring the gender relation : The case of the Tablighi Jamaat in Bangladesh, An Interdisciplinary Journal, 2012.
  3. Daly,Barbara, Metcalf, Living Hadith in the Tablighi Jamaat, The Journal of Asian Studies, Vol.52, 1993.
  4. Sikand, Yoginder (Review), Islamic Education for Girls, EPW, Vol, 41, 
  5. Begum, Momotaj, Female Leadership in Public Religious Space: An Alternative Group of Women in Tablighi Jamaat in Bangladesh, JIDC, Vol. 22, 2016,
  6. Barbara, Metcalf, Travelers’ Tales in the Tablighi Jamaat , SAGE Publication, 2003.

[1] Hasan, Mushirul (ed.)  Sikand, Yoginder, The Reformist Sufism of the Tablighi Jamaat : The Case of the Meos of Mewat , Manohar Publishers & Distributers, New Delhi, 2007. Page No. 42.

[2] M.Anwarul Haq, The Faith Movement of Maulana Muhammad Ilyas, George Allen and Unwin, London, 1972. Page No. 38-39.

[3] ibid  Page No. 44.

[4] Metcalf, Barbara, Travelers’ Tales in the Tablighi  Jamaat , SAGE Publication, 2003. Page No. 4.

[5] Ahmed, Safdar, Reform and Modernity in Islam, I.B.Tauris, London, 2013. Page No. 110-111 .

[6] D. Barbara Metcalf, Living Hadith in the Tablighi Jamaat, The Journal of  Asian Studies, Vol.52, 1993. Page No. 02. 

[7]Hasan, Mushirul, (ed.) Sikand, Yoginder, The Reformist Sufism of the Tablighi Jamaat : The Case of the Meos of Mewat  Manohar Publishers & Distributers, New Delhi, 2007.Page No.46.

[8] Begum, Momotaj Female Leadership in Public Religious Space: An Alternative Group of Women in Tablighi Jamaat in Bangladesh, JIDC, Vol. 22, 2016, Page No.  02.  तबलीगी  सुधारवाद के केंद्रीय पहलुओं में से एक दावत  है । दावत  का  शाब्दिक अर्थ है ‘लोगों को बुलाना’ या मतलब, लोगों को आमंत्रित करना ’,विशेष रूप से इस्लामी अर्थों में, या तबलीगी जमात के  दृष्टिकोण से, अर्थात  लोगों को इस्लाम के सही रास्ते पर बुलाने के लिए दावत का उपयोग किया जाता है ।

[9] M.A. Haq, Page No. 65.

[10] तबलीगी जमात की गतिविधियों में गश्त  सबसे महत्वपूर्ण है | यह एक ऐसी गतिविध है जिसको अरब में इस्लाम धर्म की स्थापना के साथ ही प्रोफिट मोहम्मद द्वारा इस्लाम की शिक्षाओं को लोगों को बताने व उनको  फैलाने  के लिए किया जाता था | इसको दावत  का काम करना भी कहा जाता है | वर्तमान समय में भी इस्लाम की शिक्षाओं को फैलाने में यह गतिविधि महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है | इसमें मुस्लमान लोगों से प्रत्यक्ष रूप से मुलाकात की जाती है | यह मुस्लिम पुरुषों द्वारा ही  अस्र ( प्रतिदिन की पाँच नमाज़ों में तीसरी नमाज़ जो सूरज छिपने से पहले होती है) की नमाज के बाद और मग़रिब  ( प्रतिदिन की पाँच नमाजों में चौथी नमाज जो सूरज छिपने के बाद होती है ) की नमाज से पहले  तक किया जाता है | अर्थात इसमें महिलाएँ भाग नहीं लेती | इसमें मस्जिद के पास के मुसलमान  घरों  में जाकर पुरुषों से  नमाज, कलमा, दीन, ईमान, इस्लाम की बात की जाती है और उनको इन सभी चीजों के महत्व के बारे में जमात के अमीर (नेता)  द्वारा बताया जाता है |  फिर उन व्यक्तियों से अपेक्षा की जाती है कि वह इस्लाम की विभिन्न शिक्षाओं का  अपने जीवन में पालन करेंगे  |

[11] Sikand, Yoginder, Page No.  45-46.

[12] Begum, Momotaj , Female Leadership in Public Religious Space: An Alternative Group of Women in Tablighi Jamaat in Bangladesh, JIDC, Vol. 22, 2016, Page No. 02.

[13] Metcalf, Barbara, Islam and Women : the case of tablighi jamaat , SEHR, vol. 5, 1996. Page No. 4-5.

[14] मोमोताज़ बेगम ने अपने एक लेख में लिखा है कि मस्तुरात दो अलग-अलग शब्दों से मिलकर बना है ; मस्तुरा और औरत | ऊर्दू में मस्तुरा का मतलब छिपा हुआ होता है और औरत सामान्य रूप से महिलाओं के लिए है | मस्तुरात का अभिप्राय ऐसी महिलायें जिनको पुरुषों के सामने बिना पर्दे के नहीं आना है |

[15] Sikand, Yoginder( Review), Islamic Education for Girls,  EPW, Vol, 41,  2006.

[16] यह एक ऊर्दू का शब्द है, जिसका अर्थ आपस में सलाह करके किसी नतीजे पर पहुँचना होता है | इस्लाम में कहा जाता है कि जो काम मशवरा के साथ किया जाता है, उसमें खैर ( अच्छाई ) होती है और खुदा ( अल्लाह ) उस काम को करने में बंदे ( भक्त ) की मदद करता है |

[17] जहाँ औरतों  की जमात यानी मस्तुरात  इलाके के जिस व्यक्ति के यहाँ रूकती है, उसको ऊर्दू में मुकामी बोलते है |

[18] Begum, Momotaj, Female Leadership in Public Religious Space: An Alternative Group of Women in Tablighi Jamaat in Bangladesh, JIDC, Vol. 22, 2016, Page No. 03.

[19] Metcalf, Barbara, Islam and Women : the case of tablighi jamaat , SEHR, vol. 5, 1996. Page No. 03.

[20]  ‘सुन्नत’ एक अरबी शब्द है | इस प्रकार के साहित्य में, इस्लामिक  समुदाय के दोनों ही प्रकार के समाजिक व कानूनी, पारम्परिक रिवाजों और गतिविधियों का वर्णन किया जाता है |

[21] बी. सिद्दीकी ने अपने लेख Reconfiguring the gender relation : The case of the Tablighi Jamaat in Bangldesh  में शम्सुल आलम से मत ग्रहण करते हुए लिखा है कि तालीम  शब्द का सम्बंध इल्म  या इस्लामिक ज्ञान से है, और यह उस प्रक्रिया को दर्शाता है जिससे इल्म  अर्जित किया जाता है |

[22] Daly, Metcalf, Barbara, Living Hadith in the Tablighi Jamaat, The Journal of  Asian Studies, Vol.52, 1993. Page No. 03.

[23] ibid. Page No. 03.

[24] इस्लाम के सामान्य बिन्दुओं की जानकारी |

[25] अल्लाह को याद करना |

[26] मुस्लिमों का (अन्य ) सम्मान करना |

[27] अपने इरादे को शुद्ध करना |

[28] तबलीगी कार्य के लिए कुछ समय देना |

[29] 19 वीं और 20 वीं शताब्दी में आपा  शब्द का उल्लेख उत्तरी भारत में एक मुस्लिम महिला शिक्षक ( गेल मिनोल्ट ने उस्तानी शब्द का प्रयोग महिला शिक्षक के लिए किया है ) के लिए होता था | इसके अलाव,  लड़कियों के मदरसे में जिनको लड़कियों के विभिन्न कामों की  जिम्मेदारी ( जैसे लड़कियों के जितने भी मदरसे से बाहर के कार्य होते थे या बाहर से कोई जरूरी सामन लाना पढ़ता था या उनको डॉक्टर के पास ले जाना होता था, उनके पाठ्यक्रम की पुस्तकों का प्रबंध, मदरसे में अन्य शिक्षकों की उपस्थिति का ध्यान रखना इत्यादि कार्य  )  भी दी जाती थी उनको भी आपा  ( गेल मिनोल्ट ने आपा शब्द का उल्लेख 20 वीं शताब्दी के शुरू में अलीगढ़ व अन्य स्थानों में स्थापित लड़कियों के मदरसे में एक जिम्मेदार महिला के रूप में किया है) कहा जाता था |  इनको ऊर्दू व अरबी की अच्छी जानकारी होती थी | जिससे वह उन लड़कियों को ऊर्दू व अरबी पढ़ना सिखाती थी और हदीस व अन्य घरेलू बातें भी बताती थी | आपा  अपने घर पर  ही अधिकांश रूप से मुस्लिम लड़कियों को पढ़ाती थी | हालाँकि कई मदरसों में भी इनकी नियुक्ति एक महिला शिक्षक के रूप में होती थी और अब भी होती है | लेकिन अब ज्यादा पढ़ी-लिखी मुस्लिम लड़कियों जिसने आलिमा का कोर्स किया हो को ही मदरसों में नियुक्त किया जाता है , लड़कियों को पढ़ाने के लिए  | मुस्लिम लड़कियाँ इनसे ही कुरानहदीस और सुन्नत की बातें सीखती थी |

[30] Minault, Gail.  Gender, Language, and Learning: Essays in Indo-Muslim Cultural History, ISBN, New Delhi, 2009. Page No. 200-201.

[31] Ahmed, Nasreen, Muslim Leadership and Women’s Education : Uttar Pradesh, 1886-1947, Three Essays Collective, 2012. Page No. 37.

 

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