बेटी के कानों से दूर

जिन दिनों लोग

मेरी प्रेमिकाओं की भूमिका पर

सवाल उठा रहे थे

सवाल दर सवाल मेरी जिजीविषा कुंठित हो

बन रही थी खोपड़ी पर नैतिकता का पहाड़

प्रेम की तो प्रेरणा मात्र है मनुष्य की देह !

कबीलाई सभ्यता में माँ और बेटे का जैविक संबंध

विकास की प्रगतिशील परिभाषा रही होगी

मुझे नहीं लगता कि उन दिनों

पूछा होगा सवाल पिता ने

अपनी बेटी से

नदी किनारे की नरम धूप में

अलसाई होगी जब पहली बार वह प्रेमी की बाँहों में

सम्बन्ध भी नहीं रहे होंगे ऐसे

जो सभ्यता से पूछ सके साम्प्रदायिक सवाल

उन दिनों

मान और मर्यादा

से भरी दोपहरी भी नहीं रही होगी

जिसके परिणामों पर

शायद ही होती होगी चर्चा

आज की भाँति रातों को काली कर

घर में गुप्त तहखाने

बेटी के कानो से दूर

इज्जत के नथुने नहीं सूँघते होंगे

दो युवा छातियों की साँसों में लव जिहाद

 

एक बार ऐसा हुआ था

घटित कोई स्वप्न मेरी स्मृति में

जागने पर बस इतना भर याद रहा-

शत्रु कबीले की नायिका संकेत कर रही थी मेरे छोटे बेटे की और… हो हो हो हो……

मेरी आँख के संकेत भर से पहली बार परिवार बना

और खोपड़ी पर बने नैतिकता के पहाड़ पर उगी नर्म दूब

तो मैं बता देना चाहता हूँ

मेरी प्रेरणाओ का उत्स

पिता का वो संकेत भर नहीं है

जिसकी आज्ञा से शत्रु नायिका का पति बन गया था मेरा पुत्र

जो कुछ है वह बस शत्रु नायिका का साहस भर है

जुलियन असांजे पहला नहीं है

सवाल सब

असहिष्णुता की आग में जल गये

और

उत्तर सब हिन्दू राष्ट्र हो गये

प्रचार

मानवीयता का खूनी बताकर किया गया

एक एशियाई योद्धा का

जो लड़ रहा था जनता की बेवकूफी पर

और

और लटका दिया तेल चोरों ने सद्दाम हुसेन को फाँसी पर

राष्ट्र, राज्य, साम्राज्य

इंसानी खून पीकर ही इतना शक्तिशाली हुआ है

विकिलीक्स की खोजी पत्रकारिता को लन्दन खा गया

ऐसा उसका इतिहास रहा है

जूलियन असांजे पहला नहीं है

और

न ही आखिरी

राष्ट्रों की भव्यता के नीचे छुपी चोरी उजागर करने के जुर्म में

दुनिया का सबसे भावुक और ईमानदार आदमी कत्ल हुआ है

दुनिया का सबसे गरीब आदमी राजा के विश्वास पर ठगा गया है

जनता ने सवाल पूछा कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है ?

जनता ने ही पलटकर जबाव दिया –

हमारा ईश्वर खतरे में है…

और

उत्तर के लिए जिम्मेदार ‘तीसरा आदमी’

ऐसे मौकों पर हमेशा चुप रहा !

यह आदमी

वर्षों से

इतिहास के उबलते सवालों को जुर्म साबित करता आ रहा है.

विवाह का गीत

चन्द्रमा की अमरता है जिन-जिनके माथे पर

आज उनका पाँच, आठ, बारह या पन्द्रह की उम्र में ब्याह नहीं होगा

बैशाख और मई आत्माओं के साथ छल के महीने हैं

कोई आठ साल पहले बैशाख की इसी धवल चाँदनी ने

जिंदगी के सरपट दौड़ते खून में संस्कार के विष से बुझा तीर छोड़ा था

देखता हूँ

नादानी के धब्बे चिपका दिए मेरी पीठ पर

इन्हें लेकर कलंकित रहूँगा जिंदगी भर

बालू का हृदय जला देती हैं आधी रात

पड़ती चाँदनी –

बचपन कच्ची मिट्टी का

हे संसार की सर्वश्रेष्ठ कामनाओं !

फेरों की अग्नि से उठती लपटें

न केवल मंडप जलाएँ

न केवल पंडित की धोती, मंत्र और वस्त्र

न केवल रिश्तेदार

न केवल पड़ोसी

न केवल बाजे वाला

न केवल बराती

न केवल घराती

मेरी आज तक की इच्छाओं में से बस एक इच्छा पूरी हो जाएँ –

हे अग्ने !

विवाह को जला

और सुहागरात को भी !

ल्याळी ( भेड़िया ) का जुर्म

हमारे ढूंढाड़ में

बाघ नहीं

ल्याळी आता है

पीठ पर लाद कर ले जाता है बकरी और भेड़ को

कोई कहता है जिंदा | कोई कहता है मारकर

आज तक हाथ नहीं आया ल्याळी

पुरखों के रात-रात के पहरों से भी

मैंने बहुत खोजा,

मुझे मिथ लगता है –

फैंटेसी सी प्रतीत होती है ल्याली की कहानियाँ…

और वो

सौ-सौ बार सच मानकर

अपने ही खूनी इतिहास को

रातों – रात जागकर | बाल नोंच-नोंचकर –

सहमा सा, भयभीत

आजकल प्रोफेसर है

डिग्रियों के बोझ से दबा…

तब से –

जब मेरे बाप ने लात मारकर घर से निकाल दिया और कहा जा पढ़

और

इतिहास की अँधेरी रातों को रोशन कर

मैंने खोज की, सबूतों की दुहाई दी

न्याय के पक्ष में इतिहास का उदाहरण दिया

लेकिन

अब भी –

पुरखों का ख्याल है कि ल्याळी रात में ही आता है

समकालीन, समझदार और प्रज्ञावान

यही सुनता हूँ ज्ञान –

ल्याळी के खूँखार इतिहास का विज्ञान…

दोनों का इतिहास छल का है

रात को गायब मेरे झुण्ड की प्रत्येक भेड़ और बकरी का मेमना

आज भी प्रोफ़सर चुरा रहा है |

 

हत्या सडक पर

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

दर्दभरी सिसकारी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

गाय की तस्करी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

लिख धर्म की मक्कारी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

भक्त, नेता की बदख्याली पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

शिक्षा की बर्बादी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

लोकतंत्र की लाचारी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

मजदूर बना भिखारी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

संविधान की झाँकी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

मंत्रीजी की लफ्फाजी पर

हत्या सडक पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

फाँसी हुई किसानी पर

हत्या सड़क पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

कौन गया सड़क सरकारी पर

हत्या सड़क पर !

हाय ! हाय

मुर्दाबाद ! जिंदाबाद

…………

अन्तस् के कई मौन

तुम्हारी कामना में

कितने प्रेम भ्रूण मारे

तुम्हारी खोज में

वर्षों महानगरों का कोलाहल सहन करता रहा

तुम्हारी आँखों के पानी वास्ते

मेरी करुणा के जल से कितनी ही स्त्रियाँ वंचित रह गई

तुम्हारी बैचेनी को पाने

कितनी पूर्णिमाओं को वैराग्य कहकर तिलांजलि दी

तुम्हारी मुस्कान पर मर

जननी की याद भी होम दी

ओ ! पुष्ट देह बालिके

तुम्हारे विनय के बादल में भीगने को

कई-कई नदियाँ मुझसे टकरा मैदानों में फसलें उगा रही

कि तुम मेरी आवाज सुनो !

जिसमें सालों पुराने उपमानों का ही प्रयोग होना है

मन की तस्सली को नियति पे रोना है

दुनिया देखकर सोना है –

कि उससे पहले ही मैंने कई-कई पृष्ठ रंगें

होंठो की कृष्ण गोलाई पर कई-कई ग्रन्थ पढ़े

ओह ! सीपी के समान नाक और लंबी गर्दन वाली…

तुम मुझे खोजों की उससे पहले ही –

कितनी शाख़ों पर तुम्हारे नाम गोद दिए

तुम्हारे नाम से कितने ही बंजर अनावृत कर दिए

तुम्हारे नाम से कितने ही मौसम बंजर रख लिए

अन्तस् के कई मौन –

ध्वनियों से वंचित रह गये

( एक स्नेहिल लगाव के वास्ते संजू के लिए )

ओमप्रकाश सुंडा 

शोधार्थी 

राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय, अजमेर ( राज. )

 

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