गोंड आदिवासी लोक कथाओं में अभिव्यक्त संदेश

(तेलंगाना राज्य के आदिलाबाद जिले के संदर्भ में)

डॉ. सी.एच. नंद कुमार,

दलित-आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केंद्र, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद, तेलंगाना.

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प्रस्तावना

भारत के विभिन्न राज्यों में आदिवासी समुदाय के लोग बड़ी संख्या में निवास करते हैं। अलग-अलग राज्यों में निवास करनेवाले भिन्न-भिन्न संस्कृति के लोगों की हजारों ऐसी मान्यताएँ हैं, इससे भारतीय संस्कृति प्रभावित हुई नजर आती है । गोंड आदिवासी समुदाय की देवी-देवता एक बड़ी संख्या में नजर आते हैं जो इन्हें दुःख के समय सुख-शांति प्रदान करते हैं । वे प्रकृति के गोद में रात-दिन बसे रहते हैं और खाली समय वे अपने परिवार के साथ मनोविनोद करते हुए जीवन की विषमताओं को दूर करने के लिए कथा, कहवातें, गीत इत्यादि को सुनाकर सहयोगियों का मनोरंजन करते रहते हैं । कथाएँ हो या गीत हो गोंड आदिवासियों के सुख-दुःख इत्यादि को दर्शाती हैं । यह हास्य, व्यंग्य और कौतुहल आदि से भरी नजर आती हैं । यह कथाएँ सतत साहचर्य के कारण वृक्ष-पुष्प, पशु-पक्षी, नदी-नाले और छोटे-बड़े पर्वत उनकी कथाओं का अभिन्न अंग बन गए हैं । यह लोककथाएँ गोंड आदिवासी समुदाय के लोगों के अभिव्यक्ति का महत्त्वपूर्ण अंग बन गए हैं । जिनता इतिहास पुराना है उतना ही उनकी कहानियाँ भी पुरानी नजर आती हैं । इनमें गोंड आदिवासियों के जीवन का हर पहलु झलकता हुआ नजर आता है इसके साथ-साथ उनकी मनोरम कल्पना का दर्शन भी हो जाता है। उनकी लोक कथाओं में संस्कृति का संरक्षण ही नहीं हुआ है बल्कि यह लोक संस्कृति का संवाहक के रूप में भी काम करते आ रही हैं । यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लोक ज्ञान पहुँचाने कार्य करती हैं । मौखिकता इसका माध्यम होने के कारण जिसमें कुछ पुराने अंश छूट जाते हैं और कई बार नये अंश जुड़ जाते हैं । इसी वजह से लोककथाओं में परिवर्तन देखने को मिलता है । समय और परिवेश के साथ-साथ मनुष्य जीवन में भी परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है । जिसका प्रभाव लोक कथाओं पर दिखाई देता है। उदाहरण के लिए देख सकते है कि किसी बूढी माँ ने अपने पोते को उसके बचपन में कहानी सुनाई हो, वह पोता बुढा हो जाने के बाद उस कहानी को ठीक उसी तरह नहीं सुनाएगा जैसे उसके दादी माँ ने उसे सुनाई थी । यह मौखिक परंपरा की विशिष्टता है ।

लोक कथाओं ने मनुष्य जीवन, प्रकृति जगत आदि से संबंधित अनेक विषय को अपने में समेट लिया है । यह जीवन की अनेक पहलुओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है । यह मनुष्य के आदिकाल से लेकर आजतक हमारे समाज में जीवित रही है । देश के विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार की लोक कथाएँ उपलब्ध होती हैं । लोक कथाओं को पुष्टि करने में मानव जीवन से संबंधित सुख-दुःख, प्रीत, श्रृंगार, वीरभाव आदि ने ऊर्जावान बना दिया है । लोक जीवन के रहन-सहन, रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास, पूजा-उपसना कहानी का ठाठ बनता और बदलता रहता है । समसामयिक दौर में भी उसकी इस विशेषता में कोई खाई नजर नहीं आती है । इसी के चलते समाज में लोक कथाओं का महत्त्व बढ़ा है और ये जीवीत भी हैं ।

कथा का अर्थ

‘कथा’ शब्द संस्कृत की ‘कथ्’ धातु से बना है, जो ‘कहने’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है । ‘कथा’ शब्द के लिए ही प्रयुक्त होने वाला ‘कहानी’ शब्द कथा का ही अपभ्रंश है । कथा शब्द के भाव को लिए हुए ‘आख्यान’ एवं ‘आख्यायिका’ शब्दों का प्रचलन भी देखने को मिलता है। आख्यान एवं आख्यायिका शब्द प्रचलन की दृष्टि से मात्र साहित्य से सम्बंधित रह गए जबकि कथा शब्द साहित्य और लोक साहित्य में उभयनिष्ठ है ।”[1]‘कथ’ धातु से व्युत्पन्न ‘कथा’ शब्द का साधारण अर्थ है । ‘वह जो कहीं जाए’ । ‘कथा’ शब्द का प्रयोग एक विशेष प्रकार की कहानी के लिये प्रयुक्त किया जाता है । जो कहानी धार्मिक अभिप्राय से अनुष्ठान के साथ सुनने के लिए हो वह ‘कथा’ कही जाएगी ।

लोककथा का स्वरूप

अंग्रेजी के ‘फोक टेल’ शब्ध के पर्यायवाची शब्द के रूप में हिंदी में लोककथा या लोककहानी शब्दों के रूप में प्रयोग किया जाता है । जब से मनुष्य का इस पृथ्वी पर जन्म हुआ है तभी से कहानी का भी जन्म हुआ होगा । यही कारण है कि मानवीय कलाओं में कहानी कहने की कला सबसे प्राचीन है । आदिम युग से ही मानव मन ने अपनी विचित्र अनुभूतियों को कथा का रूप प्रधान किया और इन कथाओं के माध्यम से ही वह अपने अपरिपक्व और अस्पष्ट जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त करने लगा । यह अभिव्यक्ति दो रूपों में हुई :-

  1. पौराणिक कथाओं के रूप में तथा
  2. लोककथाओं के रूप में ।

जिस कथा में कथा-वस्तु तथा उसकी कलात्मक कथन-प्रणाली एक साहित्यिक सौन्दर्य प्राप्त कर लेती है लोककथा कही जाती है । मानव के सुख-दुःख, रीति-रिवाज, आस्थाएँ एवं विश्वाश इन लोककथाओं में अभिव्यक्त होते रहते हैं । लोककथा मौखिक रूप में ही प्राप्य है ।”[2] लोक कथाएँ प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है । मनुष्य से अपने सुख-दुःख की अभिव्यक्त लोककथाओं के माध्यम से की है । लोक कथाओं की अभिव्यक्ति मुख्य रूप से पौराणिक तथा लोक कथाओं के रूप में की है ।

लोककथाओं की परिभाषाएँ

  1. डॉ.सत्येन्द्र ने लिखा है – “लोक में प्रचलित और परंपरा से चली आने वाली मूलतः मौखिक रूप में प्रचलित कहानियाँ ‘लोक-कहानियाँ’ कहलाती हैं ।
  2. डॉ.सत्य गुप्त ने लोककथा की परिभाषा न देकर उसके स्वरूप पर विचार करते हुए लिखा है – “लोककथाओं में लोक-मानव की सभी प्रकार की भावनाओं तथा जीवन-दर्शन समाहित है । भूत जानने की जिज्ञासा, घटनाओं का सूत्र, कोमल व पुरुष भावनाएँ, सामाजिक-ऐतिहासिक परम्पराएँ, जीवन-दर्शन के सूत्र सभी कुछ लोककथा में मिल जाते हैं ।”[3]
  3. डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि लोक कथाओं का अध्ययन कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि इस शब्द के प्रयोग के बारे में विद्वानों में मतभेद रहा है, तथापि लोक शब्द मोटे तौर पर लोक प्रचलित उन कथाओं के लिए व्यवहृत होता रहा जो मौखिक या लिखित परंपरा से क्रमशः एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होते रहे हैं ।”[4] इस कथन से यह स्पष्ट हो रहा है कि लोग प्रचलित कथाएँ हैं जो मौखिक या लिखित रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को उपलब्ध होते रहे हैं।
  4. हिंदी साहित्य कोश, भाग-1 में लोक कहानियों के विषय में लिखा है कि लोक में प्रचलित और परंपरा से चली आने वाली मूलतः मौखिक रूप में प्रचलित कहानियाँ लोक कहानियाँ कहलाती हैं।”[5] उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जो कहानियाँ सामान्य लोगों में मौखिक रूप में प्रचलित हैं । इनमें लोक जीवन से संबंधीत भावनाएँ, सामाजिक-ऐतिहासिक परम्पराएँ, जीवन-दर्शन के सूत्र सभी लोककथा में उपलब्ध हो जाते हैं । यह कहानियाँ मौखिक या लिखित परंपरा में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होती हैं । गोंड आदिवासी समुदाय की लोक कहानियाँ उनके गोंडी लिपि में उपलब्ध हैं ।

गोंड लोककथाओं में अभिव्यक्त संदेश

गोंड आदिवासी समुदाय का प्राचीन इतिहास,भाषा तथा संस्कृति है । जिनकी अभिव्यक्ति गोंड लोककथाओं के माध्यम हुई है ।

“सूर्यखंड (चंद्रपुर राज्य शासन और बहादुर रामजी) कथा के अनुसार बहादुर रामजी का शासन मुगलों से अंग्रेज द्वारा बावन गाँवों को अपने अधीन कर लेने के समय शुरू होता है। 1740 ई.के समय में बावन गाँवों के एक राजा हुआ करता था । बावन गाँव को मिलाकर एक प्रांत होता था । जिस समय मुग़ल बादशाह से अंग्रेजों ने राज्य अपने अधीन कर लिया उस समय में कलियुग वर्ष 1740 ई. में चंद्रपुर नगर में घर का उपनाम छठवाँ मेड राजकुमार वीरशाव वंश ने चंद्रपूर किल्ले का निर्माण किया । बारह गोंड राजाओं ने इस पर शासन किया । इसी समय के बीच अंग्रेजों ने दक्कन बादशाह के बावन गाँवों पर आक्रमण कर प्रतिकार करने के लिए चंद्रपुर में अपने सैन्य भेजा और युद्ध करके किले पर विजय पाकर उसे अपने अधीन कर लिया । फिर से अपने राज्य को वापस पाने के लिए राजा ने बहादुर रामजी कुमरम को अफगान राज्य से रोहिल्ला सैन्य को लाने भिजवाया । रामजी कुमरम दिन-रात सफ़र करते हुए अफगनिस्तान के लिए रवाना होते हैं । अफगानिस्थान पहुंचकर समझौते की शर्तें सैनिकों को बताकर उनके साथ फिर चंद्रपुर पहुँच जाते है । तब रोहिल्ला सैन्य को देखकर राजा का मन खुश हो गया। राजा ने आदेश दिया – अब अंग्रेजो से बदला लिया जाए। राजा की आज्ञा पाकर रोहिल्लाओं ने कमर कसके अंग्रेज सैन्य को भगा दिया । इससे यह स्पष्ट होता है कि चंद्रपूर के गोंड राजाओं ने अंग्रेजो से युद्ध जितने के लिए अफगानिस्थान के रोहिल्ला सैन्य सहायता के माध्यम से अंग्रेजों पर विजय पाई और अपने राज्य को स्वतंत्र कर लिया ।

‘पारंडखड़ा राजाओं का विधि विधान’ कहानी पारंडखड़ा राजाओं के विधि विधान पर आधारित है । इस में महत्त्वपूर्ण बिंदु यह हैं कि सूर्यवंश राज्य का उल्लेक किया गया है, इस राज्य के लोग तीर धनुष्य चलाने में माहिर थे । जब गाँव में देवी देवताओं की पूजा के लिए बकरी एवं मुर्गी की बलि देने की प्रथा प्रचलित थी । कालांतर में यह हुआ कि राज्य में अकाल पड़ा और वहाँ की प्रजा पेटभर भोजन के लिए तड़पने लगी । राजघरानों के पास भी कुछ खाने लिए नहीं मिल रहा था । अकाल के कारण वे अपने रीति-रिवाज, जात-पात आदि सब भूल गए । जब सूर्यवंश राज्य में सबकुछ अच्छा था तब वहाँ की प्रजा अपने रीति-रिवाज का पालन किया करती थी । विवाहित स्त्रियों से उत्पन्न संतान को ही सूर्यवंश राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाता था । दासी से उत्पन्न पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनने कोई स्थान नहीं दिया जाता था । दासियों से उत्पन्न संतानों की विवाह इनके बीच में ही करवाया जाता था ।

‘पारंडखड़ा राजाओं की राजधानी’ इस कहानी में गोंड राजाओं की राजधानियों के नाम और उनके गोत्र परिवार के गाँवों का नाम की चर्चा की गई हैं और क्षेत्र में निर्मित किले और मुद्रा का जिक्र किया गया है ।

‘देवताओं और उनके शिष्यों का महत्व’ यह कहानी गोंड आदिवासी समुदाय के पूजास्थल और उनके विभिन्न गोत्रों के नाम को प्रस्तुत करती है । इन पूजा स्थलों के हकदार गोंड समुदाय के लोग थे लेकिन कालांतर में अंग्रेजो ने इन पर आक्रमण कर इन स्थानों को अपने अधीन कर लिया तब से यह सभी अधिकार स्थानीय सरकार ने ले लिया ।

‘पारंडखड़ा[6] ब्रह्म ज्ञान’ कहानी के माध्यम से मुख्य संदेश यह प्रस्तुत होते हैं कि गोंड राजाओं के समय उन्होंने बड़े-बड़े बहादुरी के काम करते हुए अपने क्षेत्र के संरक्षण किया । अनेक गाँओं में किले बनाकर उसके चारों ओर दीवारें खड़ी करके अपनी प्रसिद्धि को कायम रखा । वे कालांतर में अपने राज कार्य पर ध्यान न देते हुए गर्व में आकर अपने किले में काम करने का दायित्व दूसरे लोगों को सौंप दिया । तब राजाओं को लोगों के पास से अनाज मिलना भी मुश्किल हो गया । इस प्रकार उसके पास एक बीघा जमीन भी नहीं बच गई । गाँव में राजा मजदूरी करके अपने परिवार के पालन करने की स्थिति में आ गया। इससे स्पष्ट हो जाता है गोंड राजाओं के राज-काज का अंतिम समय था । गुंजला कोईतुर लिपि के निर्माता कुमरा गंगुजी पटेल और पेंदुर लिंगुजी शिक्षक के द्वारा गोंड लिपि संरक्षण सामने आता है । उन्होंने गोंडी लिपि के लिए अपना तन मन धन लगाकर इस लिपि के उच्चारण के लिए बहुत मेहनत की । और उन्हें पारणखड़ा ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति का मार्ग मिल गया । दोनों ने अपना तन मन धन लगाकर इस लिपि का प्रचार-प्रसार किया और आगे यह कहा है कि इस लिपि से गोंड समाज में ज्ञान का प्रकाश मिलेगा और इससे लोगों का भला होगा।

‘महा शक्तियों का स्थान और पूजा विधान’ कहानी में सात शक्तियों के बारे में बताया गया है । इनकी पूजा करने की प्रथा प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय में भी गोंड आदिवासी समुदाय में प्रचलित है । वे यह हैं : कांजीयल, गोउर, मथुरा, चौकुर, जौरी, मरी और मुत्तशक्ति- ये शक्तियां सारी प्रकृति में फैली हुई  हैं । इनकी पूजा जहाँ-जहाँ होती है उनके नाम पर मूर्तियां प्रतिष्ठित की जाती हैं। इन स्थानों के नाम क्रमश : सारसेला, पटेडा, मोहरा, वाई, जामुल दारा, कबला, कन्न पेल्ली, मोतगुरा, इंद्रावेली हैं । इन सभी स्थानों पर उन्हीं के नाम पर पूजा की जाती है। अंग्रेजों के शासनकाल में भारत देश में जब रेलवे, मोटरसाइकिल, हवाई जहाज और कृषि क्षेत्र में मशीन ऐसे सभी तरह की कामों के लिए अलग-अलग यंत्र तैयार किए गए । इसी तरह एक पृथ्वी पर कई ऐसे यंत्र तैयार कर चलाने से जौरी व मरी शक्तियों का बहुत प्रचार हुआ । कालांतर मनुष्य की संख्या बहुत बढ़ गई और पशु -पक्षियों, जीव जंतु, खेती बारी के ऊपर तरह-तरह की बीमारियां फैल गई । वैसे ही मानव के जीवन पद्धति में भी बदलाव आए । इससे यह पता चलता है कि मनुष्य जीवन में यंत्रों से विकास तो हुआ लेकिन वे पर्यावरण के लिए हानिकारक भी है और इसके साथ-साथ पर्यावरण के प्रति चिंता का सन्देश अभिव्यक्त हुआ है ।

‘चतुर सावित्री’ कहानी चतुर स्त्री के साहस पर आधारित है । सावित्री एक राजा की पुत्री रहती है । वह अपने मन चाहे वर को विवाह कर लेने की इच्छुक रहती है । वर की मृत्यु समीप रहती है । उसके पिता का राज्य भी शत्रुओं के अधीन हो जाता है । वह अपने चातुर्य एवं बुद्धि से यमराज को अपने वश कर अपने वर को मृत्यु से बचाने के साथ-साथ राज्य को भी बचाती है ।

‘दो ईमानदार इंसान’ कहानी के माध्यम से ईमानदारी के बारे में बताया गया है । इस कहानी में साहूकार और ब्राह्मण इन दो पात्रों के माध्यम ईमानदारी का चित्रण किया गया है। इसमें धर्मराज के उच्चित न्याय का संदर्भ भी आया है साथ ही यह कहानी जनता के हित की सन्देश है । ध्यान देने की बात यह है कि इस कहानी में धर्मराज कहते हैं कलियुग में भी ऐसे नेक काम करने से भगवान भी उन पर प्रसन्न होते हैं । लेकिन आज वर्तमान समय में में इसतरह के मनुष्य मिलना दुर्लभ है और जहाँ तक राजा का न्याय हमें नहीं मिल पा रहा है और प्रजा के हित बात दूर ही है ।

‘बीरबल बादशाह’ इस कहानी के माध्यम से प्रसिद्द अकबर और बीरबल के बारे बात की गई है । जिसमें सच और झूठ के अंतर को दर्शाते हुए नैतिक मूल्यों की बात की गई है । साथ ही अफगानिस्थान के रोहिंग्या सैनीकों से युद्ध का संदर्भ मिलता है । अततः ऐसा प्रतीत होता है कि यह कहानी बाल कहानी है ।

‘एकाग्रता’ इस कहानी में एकाग्रता की महता को समझाने के लिए आम जन की बात करते हुए लोहार की अपने काम के प्रति एकाग्रता एवं निष्ठा को पौराणिक पात्र अर्जुन की धनुर्विद्या का उदाहरन देते हुए स्पष्ट किया गया है ।

‘एकता’ इस कहानी में पौराणिक पात्रों के माध्यम से एकता का संदेश दिया है । इसमें राम,लक्षमन और पाँच पांडवों का उदहारण देते हुए जिसे अपने व्यावहारिक जीवन में लागू करने की बात रखी गई है । घर परिवार के लोग भी जब एकता से रहेंगे तो तब उन्हें न खाने-पीने की कमी होगी और इसके साथ-साथ उनके मनोबल भी बढ़ हो जायेगा । गाँव वालों के भीतर एकता रहेगी तो प्रतिकूल परिस्थितियों का भी आपसी विचार-विमर्श करके उसका सामना कर सकते हैं ।

‘चतुर इसप’ इस कहानी के माध्यम से नीति परक संदेश दिया गया है । मनुष्य को घमंड में आकर किसी के सामने अपनी जुबान को फिसलने नहीं देना चाहिए । जिससे खुद की हानि हो सकती है । इस कहानी से यह प्रतीत होता है कि गोंड राजाओं को इसके माध्यम से नीति का संदेश दिया गया होगा ।

‘प्रधान का बड़ा बोलापन’-यह कहानी प्रधान आदिवासी समुदाय के चित्रण को दर्शाती है । वे गोंड राजाओं के पास आश्रय लेकर उन्हें कुछ कहानियाँ सुनाते थे जिससे उनका मनोरंजन हुआ करता था । ऐसी कही गई बातों को सुनकर राजाओं ने उन्हें अपने पास रख कर खाना देकर उनका पालन-पोषण किया । उस समय वे अपने घर में अपनी मातृभाषा, राजा के दरबार में राजभाषा धाराप्रवाह सीखकर कर्मकांड और त्यौहारों में शहनाई, किंगरी बजाते हुए तथा गाना गाते हुए खुशी से जीवन व्यतीत करते रहते थे । वे राज दरबार में राजाओं को पुराने राजाओं के कथाओं को किंगरी बजाते हुए, गाना गाते हुए दूसरों को सुनाते थे । वे राजा को दाता कहने लगे क्योंकि उन्होंने खाने की सामग्री के साथ थाली लोटा आदि सब देखकर उनके परिवार का पालन-पोषण किया करते थे ।

‘तुकाराम महाराज का वचन’ इस कहानी के माध्यम से तुकाराम की सच्ची भक्ति के बारे में बताया गया है। साथ ही यह कहानी बाह्याआडम्बरों में विश्वाश न करते हुए सत्संग के मार्ग पर चलने का उपदेश देती है । बुरे मार्ग पर चलनेवालों के लिए सीख देती है । मुख्य रूप से इस कहानी में संत तुकाराम के भक्ति मार्ग को देख सकते है । जो वर्तमान समय में इस भक्ति मार्ग का प्रभाव गोंड समुदाय पर दिखाई देता है ।

‘पीतल एवं उसकी खोज’ इस कहानी के माध्यम से लेखक ने पीतल की खोज एवं उसके महत्त्व को दर्शाने का प्रयास किया है । जैसे कि हम देख सकते हैं इसमें नाशिक शहर का उल्लेक करते हैं इस आधार पर कहा जा सकता है कि पीतल की खोज नाशिक शहर में या वर्तमान महाराष्ट्र में हुई होगी ऐसा शत प्रतिशत कहा नहीं जा सकता । हमें यहाँ ध्यान केंद्रित करने जरूरत इसलिए है कि नाशिक से पीतल के वस्तु लाने का संदर्भ देते हैं । दूसरी ओर पीतल की खोज के बारे में बात करते हैं । कहा जाता है कि असूर आदिवासी समुदाय द्वारा लोहे की खोज एवं उसका आविष्कार हुआ था । जैसे वे लोहे के औजार बनाते थे उसी तरह से वर्तमान समय में गोंड आदिवासी समुदाय के संपर्क में आनेवाली ओझा समुदाय द्वारा तरह-तरह के पीतल के वस्तुओं का निर्माण किया जाता है – जैसे देवी देवताओं की मूर्तियाँ, पैरों में पहननेवाले आभूषण, दीपक, किवाड़ की सामाग्री, बैलों के गले की घंटियाँ, घूंगरू, खेती संबंधित औजारों की सामग्री एवं घरेलु उपयोगी वस्तुएं आदि । इन सब वस्तुओं का गोंड समुदाय के द्वारा उपयोग किया जाता है।

निष्कर्ष:

गोंड आदिवासी की लोककथाओं में मनुष्य जीवन के रीति-रिवाज, सुख-दुःख, विश्वाशों आदि की अभिव्यक्ति लोककथाओं के माध्यम से हुई है । इन लोकथाओं में पशु-पक्षी, आकाश, देवी-देवता नर-नारी आदि सबके बारे में लोक विश्वाश मिलते हैं । इनके जरिये लोक चेतना और लोक जीवन की अभिव्यक्ति हुई नजर आती है । इनमें लोक के विश्वाश अन्तर्निहित नजर आते हैं । इन सारे बातों से यह पता चलता है कि गोंड आदिवासी की लोककथाएँ उनके जीवन के सुख-दुःख, हर्ष, विश्वाश आदि के अभिव्यक्ति का माध्यम रही हैं ।

 

  1. .लोक साहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन, डॉ. महेश गुप्त.पृ.सं.189.

  2. . लोक साहित्य के प्रतिमान, डॉ. कुंदनलाल उप्रेती,पृ.सं.132.
  3. . लोक साहित्य के प्रतिमान, डॉ. कुंदनलाल उप्रेती पृ.सं.132.
  4. .लोक कथा विज्ञान,श्री चन्द्र जैन, पृ.सं,18
  5. . लोक कथा विज्ञान,श्री चन्द्र जैन,पृ.सं,18,19
  6. . बारह करोड़.

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