मीडिया में राष्ट्रवाद की बहस

राकेश कुमार
पीएच.डी
विभाग- प्रौढ़ सतत शिक्षा एवं प्रसार विभाग
(Department of Adult, Continuing Education & Extension)
विश्वविद्यालय- दिल्ली विश्वविद्यालय
संपर्क सूत्र- 7503518676
ईमेल- mr.rakeshkumar11@gmail.com

 सारांश :-

प्रस्तुत शोध आलेख मीडिया में मौजूदा राष्ट्रवाद, देशद्रोही, देशभक्त और हिंसा की बहस और उसके विभिन्न पहलुओं को मौजूदा समय से व्याख्यायित करने की पहल करता है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद दो ऐसे विचार रहे है जिन पर कई सालों से हर अलगअलग देश में विचारविमर्श हुआ है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद का उदय हर देश में एक समान नहीं रहा है और न ही राष्ट्रवाद के परिणाम। भारत में राष्ट्रवाद का उदय उपनिवेशी सत्ता के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन के लिए हुआ था। राष्ट्रवाद ने भारत की स्वतंत्रता में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया था। स्वतंत्रता के इतने सालों बाद मीडिया में एक बार फिर राष्ट्रवाद और इसका विमर्श केंद्र में है। प्रस्तुत शोध आलेख इसी विमर्श और बहस का आलोचनात्मक परीक्षण करने का प्रयास करता है।

प्रमुख शब्द :- राष्ट्रवाद, मीडिया, आन्दोलन, वर्तमान राष्ट्रवाद, देशद्रोही, देशभक्त और हिंसा।

परिकल्पना :- राष्ट्रवाद एक नकारात्मक विचार है।

शोध प्रविधि:- प्रस्तुत शोध आलेख में द्वितीयक स्रोतों का प्रयोग किया गया है जिसमे पुस्तकें एवं अखबार शामिल है।

शोध विस्तार

  • राष्ट्रवाद:-

राष्ट्र एक लगातार निर्माण की प्रक्रिया है। एक राष्ट्र का अपना एक इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, प्रतीक, गान इत्यादि होते है। जब उस राष्ट्र का व्यक्ति या नागरिक अपने राष्ट्र के इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, प्रतीकों और गान के प्रति एक सम्मान की भावना रखते है तो उसे राष्ट्रवाद कहा जा सकता है। सरल अर्थों में अपने राष्ट्र के प्रति सम्मान की भावना राष्ट्रवाद है।

राष्ट्रवाद को लेकर विभिन्न-विभिन्न विचारकों के अलग-अलग मत रहे है। अर्नेस्ट गैलनर ने राष्ट्रवाद को एक ऐसी विचारधारा के रूप में देखा जिसका जन्म और आगमन आधुनिक काल में हुआ है। वे कहते है कि “जहां सामंतवादी समाज अपने सामंतवादी बंधनो एवं संबंधो से जुड़े होते है, वहीं आधुनिक औद्योगिक समाज में कोई बंधन नहीं बन पाता क्योंकि यह समाज अधिक गतिशील एवं प्रतिस्पर्धी होता है इसलिए कुछ मूल्यों और विचारधाराओं का होना जरूरी है,

जो समाज की सांस्कृतिक साम्यता को बनाए रखे। जिसका आधार राष्ट्रवाद है।” (अभय प्रसाद सिंह, “भारत में राष्ट्रवादपृष्ठ3)

औद्योगिक समाज एक ऐसा समाज होता है जिसका संबंध हर तबके के व्यक्ति से होता है और यह संबंध हमेशा से ही अपने स्वभाव में प्रतिस्पर्धी और प्रयोगकर्ता होते है। ऐसी अवस्था में हमे एक ऐसे सन्तुलित आधार की जरूरत होती है जो इन संबंधो में एक समानता बनाए रखे और यही समानता का आधार राष्ट्रवाद होता है।

इरिक हॉब्सवॉम राष्ट्रवाद को राजनीतिक विचार के रूप में देखने की कोशिश करते है। उनका मानना था कि किसी भी राष्ट्र की कोई पुरानी नृजातीय परंपरा नहीं होती। वे कहते है कि “प्राचीन परंपरा में विश्वास, सांस्कृतिक शुद्धता, ऐतिहासिक निरंतरता सब एक झूठी कल्पना है, जो स्वयं राष्ट्रवाद द्वारा ही बनाई गई है। यह तो राष्ट्र था जिसने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए राष्ट्रवाद को जन्म दिया।” (अभय प्रसाद सिंह, “भारत में राष्ट्रवादपृष्ठ4)

हम पुराने समाजों को देखे तो हम पाएंगे कि पुराने समाजों में एक नृजातीय परंपरा होती थी। यह नृजातीय परंपरा कबीलाई समाज के रूप में होती थी। पुराने दौर में मानव जीवन एक-दूसरे पर निर्भर था। यह वह दौर था जब मानव समाज कबीलों में रहा करता था। जीवनयापन और सुरक्षा की दृष्टि से लोग कबीलें बनाकर रहा करते थे। हर कबीलें के लोगों में एक दूसरे के प्रति विश्वास की भावना होती थी, जो कबीलों का मुख्य आधार हुआ करती थी। यही संबंध लगातार विकसित होते गए और जिसने आधुनिक युग में राष्ट्रवाद का रूप लिया।

बेनेडिक्ट एंडरसन राष्ट्रवाद पर लिखते हुए कहते है कि “राष्ट्रवाद को लोग आवश्यकता से अधिक महत्व दे रहे है। क्या ही अच्छा हो कि हम इसे लोगों की आयु और लिंग के समान अध्ययन और विवेचन का कारक भर माने, राष्ट्रवाद को फासीवाद या उदारवाद जैसी किसी विचारधारा से जोड़ने से बेहतर है इसे सामाजिक व्यवहार या धर्म जैसा ही एक तत्व माना जाए और आवश्यकता से अधिक महत्त्व नहीं दिया जाए।” ( Benedict Anderson, “Imagined Communities”, Page no.5) 

इतिहास में कई ऐसे उदहारण है जब राष्ट्रवाद अपने स्वभाव में उग्र हुआ और दो राष्ट्रों के बीच या राष्ट्र के भीतर दो समुदायों के बीच हिंसा के माहौल ने जन्म ले लिया इसलिए एंडरसन का मानना था कि ‘हमें राष्ट्रवाद को आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं देना चाहिए।’

एंडरसन कहते है कि “मैं राष्ट्रवाद की मानक सम्बन्धी यह परिभाषा देना चाहूंगा कि यह एक काल्पनिक राजनैतिक समुदाय भर है और काल्पनिक तौर पर ही यह आरंभ से सीमित और स्वायत्त दोनों रहा है।” (Benedict Anderson, “Imagined Communities”, Page no.5-6) 

एंडरसन राष्ट्रवाद को एक काल्पनिक विचार इसलिए मानते है क्योंकि किसी भी राष्ट्र में ऐसे कई लोग या नागरिक होते है जो एक ही राष्ट्र के भीतर वास करते है लेकिन वास्तविक रूप में कभी एक दूसरे को देख या जान नहीं पाते लेकिन तब भी वह यह मानते है कि वह एक ही राष्ट्र के सदस्य है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद की कोई अंतिम परिभाषा नहीं हो सकती है । यह एक ऐसी भावना है जो काल, देश, समय के अनुसार लगातार बदलती रहती है और स्वभाव में परिवर्तनशील होती है।

  • मीडिया और राष्ट्रवाद की मौजूदा बहस :-

मीडिया में राष्ट्रवाद पर जो मौजूदा विमर्श हुआ, उसकी शुरुआत शैक्षणिक संस्थान से हुई। नौ फरवरी 2016 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से राष्ट्रवाद पर बहस शुरू हुई । इस बहस में कई बिंदु थे जैसे भाषा, धर्म, अभिव्यक्ति की आज़ादी, असहमति का अधिकार, समानता का अधिकार, देशभक्त बनाम देशद्रोही आदि। 

मीडिया ने शैक्षणिक संस्थान की इस बहस को व्यापक पटल पर रखा और टीवी चैनल्स, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रवाद की इस बहस को विमर्श में तब्दील कर इसके सभी बिंदुओं और आधारों पर एक व्यापक बातचीत की।

मीडिया में राष्ट्रवाद पर जो विमर्श हुआ, उनमें एक मुद्दा भाषा का भी था। निवेदिता मेनन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रवाद पर अपने भाषण के दौरान कहती है कि “प्रोफ़ेसर आयशा किदवई के लेक्चर के बाद किसी ने यह सवाल उठाया था कि एक राष्ट्र बनने के लिए एक भाषा होनी चाहिए, तो वह भाषा कौन सी भाषा होगी? कौन-सी ज़ुबान होगी?” (Azad.R, Nair.J, Singh.M, & Roy.M.S, (Edited) “What The Nation Really Needs To Know; The JNU Nationalism Lectures”) 

अगर हम भारतीय राष्ट्रवाद को देखे तो हम पाते है कि आज़ादी की लड़ाई में सभी वर्गों और समुदायों के लोगों ने अपना समान योगदान दिया था, इन वर्गों के लोग भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाले लोग थे। ज़ाहिर सी बात है कि भारतीय राष्ट्रवाद के मूल में भाषाई विविधता भी है। भारतीय राष्ट्रवाद ने भाषाई विविधता के साथ जन्म लिया था इसलिए भारतीय राष्ट्र के सन्दर्भ में किसी एक भाषा को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता है।

आनंद कुमार अपने वक्तव्य में कहते है कि “हमारे मुल्क में नेशनलिज़्म को बनाने और पहचानने के लिए जो विमर्श चला उनमें से एक विचार तो यह वाला था कि बिना एक प्रभुत्व पहचान के राष्ट्र निर्माण कैसे होगा।” (Azad.R, Nair.J, Singh.M, & Roy.M.S, (Edited) “What The Nation Really Needs To Know; The JNU Nationalism Lectures”) 

भारत जब उपनिवेशी सत्ता के विरुद्ध अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, तब सभी वर्गों ने उस लड़ाई में अपना बहुमूल्य योगदान दिया था। ऐसे में हमें इस बात की आवश्यकता थी कि हम एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करें जहाँ सभी वर्गों के लोगों को समान दर्जा, समान अवसर और समान लाभ मिले। हमें जरुरत एक ऐसे विचार और पद्धति को अपनाने की थी जिसमें बिना किसी एक प्रभुत्व पहचान और बिना किसी एक पहचान को विशेष दर्जा देते हुए समावेशी पहलू से राष्ट्र निर्माण हो सके। आज़ादी के बाद हमने एक ऐसे संविधान को अपनाया जिसमें सभी के लिए समान दर्जा और समान अवसर थे। आने वाले दिनों में भाषा के आधार पर राज्य बने और भाषाई विविधता होते हुए भी सभी राज्य एकजुटता के साथ भारतीय संविधान के दायरे में रहे।

योगेंद्र यादव कहते है कि ” राष्ट्रवाद पर जो विमर्श हुआ है, उसका सबसे दुःखद पहलू इसकी फ्रेमिंग है। यह सारा विमर्श दो पक्षों में विभाजित है। दोनों पक्षों का एक भी वर्ग भारतीय राष्ट्रीयता का सच्चा वारिस नहीं है।” ( योगेंद्र यादव, “राष्ट्रवाद की चुनौतियाँअदहन पत्रिका।)

एक देश की राजनीतिक व्यवस्था एक मज़बूत व्यवस्था होती है और इस व्यवस्था की पहुँच समाज में सबसे ज्यादा गहरे और व्यापक स्तर तक होती है। राजनीतिक बदलाव देश में नई परिस्थितियों को जन्म देता है। अगर हम भारत में उपनिवेशी शासन को देखे तो हम पाते है कि आजादी की लड़ाई के दौरान भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ कई आंदोलन छेड़े और इन्हीं आंदोलनों के कारण उस समय की राजनीतिक व्यवस्था में अनेक परिवर्तन हुए और यही परिवर्तन अपने आप में भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म का आधार बना लेकिन वर्तमान दौर को देखा जाए तो कहीं न कहीं आंदोलनों के प्रयोग पर भी सवाल खड़े हुए है। मीडिया में राष्ट्रवाद का जो मौजूदा विमर्श हुआ। उस विमर्श ने इस सवाल को तो खड़ा किया ही कि एक लोकतंत्र में आंदोलनों की बेहद बड़ी भूमिका होती है लेकिन यह विमर्श साथ में ये भी बताता है कि आंदोलनों का सही प्रयोग बेहद ही आवश्यक है।

” स्वाधीनता प्राप्ति के लक्ष्य ने जिस प्रकार की राष्ट्रीयता को जन्म दिया उसमें विषम आर्थिक विकास और जाति व्यवस्था पर टिके समाज के विभिन्न समुदायों की विशिष्ट जरुरतों को अलग-अलग सुनना और उनके लिए संघर्ष करना प्रमुख नहीं था। अतः बहुत से जरूरी मुद्दे जिनमें स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के मुद्दे महत्त्वपूर्ण थे- फर्श के नीचे खिसका दिए गए। राष्ट्रवाद के भीतर जिस मनुष्यता की रक्षा करने की जरूरत थी, वह न हो सका।” (सुधा सिंह, “राजनीति: समावेशी राष्ट्रवाद बनाम प्रतीकवाद” , जनसत्ता।)

राष्ट्रवाद का समकालीन विमर्श जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से शुरू हुआ और जाधवपुर विश्वविद्यालय और दिल्ली के रामजस महाविद्यालय जैसे कई पड़ाव से गुजरा। मीडिया में राष्ट्रवाद के इस समकालीन विमर्श में दो शब्द मुख्य रूप से केंद्र बिंदु में घूमते रहे, पहला “देशभक्त” और दूसरा “देशद्रोही” । 

विचारधारा के स्तर पर ये विमर्श दो वर्गों में विभाजित था। एक वर्ग मुख्य रूप से वामपंथ विचारधारा से जुड़ा था और दूसरा वर्ग राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (दक्षिणपंथ) से जुड़ा हुआ था। 

वामपंथ विचारधारा का मानना था कि संविधान के अनुसार चलना ही देशभक्ति है, इसके समर्थनकारी यह भी बोलते कि भारत का संविधान हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी प्रदान करता है और इस अभिव्यक्ति की आज़ादी को दबाना सही नहीं है।

वहीं दूसरी ओर जो वर्ग राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (दक्षिणपंथ) से जुड़ा हुआ था, उसका मानना था कि यह सही है कि भारत का संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी प्रदान करता है लेकिन यह सही नहीं है कि हम उस अभिव्यक्ति की आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल करे और उसका प्रयोग देश की एकता को तोड़ने में करे। हर वह अभिव्यक्ति की आज़ादी जो देश को तोड़ने की बात करती हो वह निश्चित रूप से गलत ही है। अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग तो देश की एकता को बनाए रखने और देश के विकास में होना चाहिए।

राष्ट्रवाद के इस विमर्श, रामजस महाविद्यालय प्रकरण और अभिव्यक्ति की आज़ादी के मुद्दे पर बोलते हुए राकेश सिन्हा कहते है कि ” घटना आधारित विमर्श और विचार आधारित विमर्श में अंतर होता है। अभी जो घटना घटी, ऐसी दस घटनाएं दस-पाँच दिन में शांत हो जाएगी। यह घटना आधारित विमर्श है। कोई आया, उसे रोका गया, धरना दिया गया ऐसी घटनाएं घटती रहती है। मैं अभिव्यक्ति की आज़ादी को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ।” (राकेश सिन्हा, “बारादरी” , रविवारीय स्तंभ, जनसत्ता)

राष्ट्रवाद के इस समकालीन विमर्श में हर पहलू थे, राष्ट्रवाद के इस समकालीन विमर्श ने सभी मुद्दों को समेटने की कोशिश की। अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी को देखा जाए तो हम सब मानते है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी एक लोकतंत्र का प्राणतत्व होती है। एक लोकतंत्र के मज़बूत होने का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वह लोकतंत्र अपने नागरिकों को या अपनी जनता को अभिव्यक्ति की कितनी आज़ादी प्रदान करता है। 

दूसरी तरफ यह भी जरूरी है कि हम लोकतंत्र में संविधान द्वारा दिए गए अपने समस्त अधिकारों का एक उचित प्रयोग सही और सकारात्मक दिशा में करे। हमें चाहिए कि हम अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग संविधान के ही दायरे में करे। यदि संविधान द्वारा दिए गए किसी अधिकार का गलत प्रयोग होता है तो आखिरकार वह गलत प्रयोग हमारे लोकतंत्र और राष्ट्र की एकता को ही नुक़सान पहुंचाएगा और साथ में यह भी सही नहीं कि हम किसी को उसके विचारों और इच्छाओं को अभिव्यक्त करने से रोके। अभिव्यक्ति की आज़ादी का सकारात्मक प्रयोग इस तरीके से होना चाहिए जिससे एक राष्ट्र की बुनियाद और उसके संविधान की मजबूती बनी रहे।

राष्ट्रवाद के इस विमर्श में एक मुख्य बिन्दु ऐसा भी था जिसने उपनिवेशी सत्ता के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया था, वह मुख्य बिंदु था “भारत माता की जय” का नारा राष्ट्रवाद के इस समकालीन विमर्श में “भारत माता की जय” के नारे को कुछ लोगों ने हिंदुत्ववादी नारा कहा और इसे बोलने से इंकार कर दिया। 

योगेंद्र यादव कहते है कि ” भारत माता की जय, कोई राइट विंग हिन्दुत्व राष्ट्रवादियों का स्लोगन नहीं था, इस देश में “भारत माता की जय”, हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का बिल्कुल मैनस्ट्रीम स्लोगन था।” (योगेंद्र यादव, “राष्ट्रवाद की चुनौतियांअदहन पत्रिका) 

उपनिवेशी सत्ता के खिलाफ हमारे भारत राष्ट्र की जनता ने अनेक आंदोलन किये थे। उन आंदोलनों में जनता ने कई नारों का उपयोग किया था। इन नारों ने विविधता से भरी हुई जनता का एकबद्ध किया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। ये नारे किसी खास धर्म, जाति और राजनीतिक पार्टी के नहीं थे। ये सभी नारे भारतीय जनता की एकजुटता की उपज थे इसलिए इन नारों को संकीर्ण दायरे में देखना गलत है। ये समस्त नारे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की बहुमूल्य धरोहर हैं।

  • निष्कर्ष:-

 राष्ट्रवाद के कुछ देशों में नकारात्मक परिणाम ही रहे है पर कुछ देशों में इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिले है। कई देशों में एक सकारात्मक विचार के रूप में राष्ट्रवाद ने लोगों को एकजुट करने का काम भी किया है। उपनिवेशी सत्ता के खिलाफ भारत में राष्ट्रवाद ने लोगों को एकरूपता में बांधा है जिसके कारण लोगों में एक दूसरे के प्रति विरोध और नफ़रत की भावना  काफी हद तक समाप्त हो गयी। इस रूप में राष्ट्रवाद ने मानवता को एक सूत्र में बांधने का कार्य किया है। मीडिया में राष्ट्रवाद की मौजूदा बहस को इन्हीं मुद्दों के साथ आगे बढ़ाना चाहिए और एक सकारात्मक विमर्श के साथ राष्ट्रवाद का प्रयोग राष्ट्र के विकास में करना चाहिए।

संदर्भग्रन्थसूची

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पत्रपत्रिकाएं :-

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http://www.jansatta.com/politics/inclusive-nationalism-versus-symbolism/76634/

  1. सिन्हा राकेश, जनसत्ता, बारादरी, रविवारीय स्तंभ, 7 मार्च 2017 

http://www.jansatta.com/sunday-column/rss-thinker-rakesh-sinha-interview-over-students-union-vs-rss-ideology/268022/

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