संस्मरण की दुनिया में स्त्री और उसके सरोकार

(स्त्री द्वारा लिखे गए 2000 से अब तक प्रकाशित संस्मरण)

प्राची तिवारी

शोधार्थी(पीएचडी),हिंदी साहित्य

दिल्ली विश्वविद्यालय

हिंदी विभाग, दिल्ली

मोबाईल- 8750578276

ईमेल-prachitiwari023@gmail.com

सारांश

संस्मरण स्मृति पर आधारित होता है। संस्मरण के द्वारा लेखक अपने जीवन से संबंधित किसी घटना, व्यक्ति, अनुभव आदि की स्मृति के आधार पर पुनर्रचना करता है। संस्मरण सच के करीब माना जाता है जिससे पाठक संस्मरण में दिलचस्पी लेने लगे हैं साथ ही लेखक संवाद, नाटकीयता और भाषायी कौशल का इस्तेमाल करके संस्मरण को पाठकों के लिए रोचक और पठनीय बनाता है। हिंदी साहित्य में संस्मरण एक महत्वपूर्ण विधा है। इस विधा को साहित्य में फुटकर के रूप में देखा गया है। कुछ साहित्येतिहास में आधा पृष्ठ या एक पृष्ठ में सिर्फ संस्मरणों का नामोल्लेख किया गया। आज संस्मरण जैसी महत्वपूर्ण विधा हाशिये पर है। साहित्य का काम है हाशिये में गई विधाओं को केंद्र में लाना। ऐसे में हमें संस्मरण विधा को केंद्र में लाने का प्रयास करना होगा।

संस्मरणों पर अभी तक काफी कम काम हुआ है। महिला लेखिकाओं के संस्मरणों को लेकर सुव्यवस्थिति एवं विविध आयामों को लेकर किये गये कार्य की कमी है। अत: इस शोध में उनके संस्मरणों के विविध पक्षों को उद्घाटित करने की योजना है।

बीज शब्द: स्मृति, स्त्री अस्मिता, सरोकार, इतिहास, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा, संस्मरण, कथेतर

आमुख

संस्मरण अंग्रेजी के मेमायर्स शब्द का हिंदी अनुवाद है, जिसका अर्थ है स्मरण के आधार पर लिखा गया साहित्य रूप। संस्मरण स्मरण शब्द से बना है, जिसमें स्मृति प्रमुख होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो स्मृति ही संस्मरण का मुख्य आधार है। डॉ. अमरनाथ के शब्दों में, “संस्मरण का मूल अर्थ है, ‘सम्यक स्मृति’ एक ऐसी स्मृति जो वर्तमान को अधिक सार्थक, समृद्धि और संवेदनशील बनाती है। संस्मरण मूलतः अतीत एवं वर्तमान के बीच एक सेतु है।…यह एक संबंध चेतना है जो एक तरफ स्मरणीय को आलोकित करती है तो दूसरी तरफ संस्मरणकार को भी अपने मूल्यांकन का अवसर देती है। समय के धुंध में ओझल होती जिंदगी को पुनर्सृजित करने की आंतरिक आकांक्षा में ही संस्मरण के बीज निहित होते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि संबंधों की आत्मीयता एवं स्मृति की परस्परता ही संस्मरण की रचना-प्रक्रिया का मूल आधार है।”

संस्मरण स्वयं को खोजने-पहचानने की कोशिश है। जिसका एक सिरा वर्तमान से बंधा होता है और दूसरा अतीत से। रचनाकार संस्मरण को अतीत से उठाता है, वर्तमान में लाता है और भविष्य तक उसके विस्तार को ले जाता है। अरुण प्रकाश के शब्दों में, “संस्मरण वर्तमान में अतीत के बारे में लिखे जाते हैं। अतीत और वर्तमान के बीच वाचक के साथ काफी कुछ घटित होता है। संवेदना, भाषा, अभिव्यक्ति, जीवन की प्राथमिकता, संबंध, दृष्टि आदि ऐसे बदल चुके होते हैं, कि अतीत बिल्कुल उल्टा भी दिख सकता है। संस्मरण इतनी तरल विधा है अपने बारे में लिखो तो आत्मकथा लगे, दूसरों के बारे में लिखो तो रेखाचित्र या निबंध दिखे और जगहों, यात्राओं के बारे में लिखा जाए तो यात्रा-वृत्तान्त।”

हिंदी में संस्मरण साहित्य के इतिहास पर नज़र डालने से पहले, संस्मरण के विश्व इतिहास पर नज़र डालना होगा। संस्मरण को आत्मकथा की ही उपविधा माना जाता है। लिहाज़ा कुछ कॉमन पुस्तकें हैं जो आत्मकथा और संस्मरण दोनों की पूर्वज मानी जाती हैं। संस्मरण का बीज 11वीं सदी के जापानी उपन्यास ‘द टेल ऑफ गेंजी’ में मिलता है जो आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। लेकिन वह अंततः उपन्यास है। हिंदी में संस्मरण शुरू से ही लिखे जाते रहे पर वे संकलित न हो सके। हिंदी में संस्मरण लेखन का सिलसिला 20वीं सदी के तीसरे दशक में शुरू हो चुका था, लेकिन विधा के रूप में उसकी स्वतंत्र पहचान पाँचवे दशक में ही बन सकी।

प्रथम चरण(1870-1930) के संस्मरणों में भारतेंदु तथा द्विवेदीयुगीन पत्र-पत्रिकाओं, जैसे कविवचन सुधा, हिंदी प्रदीप, सरस्वती, मतवाला, विशालभारत, सुधा, माधुरी आदि में प्रकाशित हुए। इसमें प्रकाशित संस्मरण प्रायः बालमुकुंद गुप्त, श्यामसुंदर दास, बनारसी दास चतुर्वेदी, वृन्दावनलाल वर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी, पद्मसिंह शर्मा आदि के हैं।

द्वितीय चरण(1930-1970) में महादेवी वर्मा, जैनेंद्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, बच्चन, दिनकर, अज्ञेय आदि विशिष्ट संस्मरणकार हैं, जिन्होंने संस्मरण विधा को नया रूप प्रदान किया तथा उसे ऊँचाई दी।

तृतीय चरण(1970 से अबतक) के संस्मरणों में धर्मवीर भारती, शिवरानी प्रेमचंद, निर्मल वर्मा, कृष्ण बिहारी मिश्र, पुष्पा भारती, पद्ममा सचदेव, काशीनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह आदि हैं।

इसी कड़ी में महिला लेखिकाओं में कृष्णासोबती, ममता कालिया, चंद्रकांता, निर्मला जैन, मृदुला गर्ग, गगन गिल, मैत्रेयी पुष्पा आदि के संस्मरणों को लिया जा सकता है।

जिसमें कृष्णा सोबती का संस्मरण ‘हमहशमत’ का तीसरा खंड, समकालीनों के संस्मरणों के बहाने, इस शती पर फैला हिंदी साहित्य समाज, यहाँ अपने वैचारिक और रचनात्मक विमर्श के साथ उजागर है। ‘हमहशमत’ के तीसरे खंड में शामिल हैं- सत्येन कुमार, जयदेव, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, देवेंद्र इस्सर, निर्मला जैन, विभूतिनारायण राय, रवींद्र कालिया, शम्भूनाथ, गिरधर राठी, आलोक मेहता और विष्णु खरे।

‘हमहशमत’ हमारे समकालीन जीवन फलक पर एक लंबे आख्यान का प्रतिबिंब है। इसमें हर चित्र घटना है और हर चेहरा कथानायक। हमहशमत की जीवंतता और भाषायी चित्रात्मकता उन्हें कालजयी मुखड़े के स्थापत्य में स्थित कर देती है।

कृष्णा सोबती ने अपने संस्मरण ‘मार्फ़त दिल्ली’ के माध्यम से आज से सत्तर साल के पहले की दिल्ली को पुनः जीवंत बनाया है । ‘मार्फत दिल्ली’ में उन्होंने आज़ादी बाद के समय की कुछ सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक छवियों को अंकित किया है। यह वह समय था जब ब्रिटिश सरकार के पराये अनुशासन से निकलकर दिल्ली अपनी औपनिवेशिक आदतों और देसी जीवन-शैली के बीच कुछ नया गढ़ रही थी। सडक़ों पर शरणार्थियों की चोट खाई टोलियाँ अपने लिए छत और रोज़ी-रोटी तलाशती घूमती थीं। और देश की नई-नई सरकार अपनी जि़म्मेदारियों से दो-चार हो रही थी।

उस विराट परिदृश्य में साहित्य समाज भी नई आँखों से देश और दुनिया को देख रहा था। लेखकों-कवियों की एक नई पीढ़ी उभर रही थी। लोग मिलते थे। बैठते थे। बहस करते थे और अपने रचनात्मक दायित्वों को ताज़ा बनाए रखते थे। बैठने-बतियाने की जगहें, काफी हाउस और रेस्तराँ साथियों की-सी भूमिका निभाते थे। मंडी हाउस और कनाट प्लेस नए विचारों और विचारधाराओं की ऊष्मा का प्रसार करते थे। आज़ादी के पहले उत्सव का उल्लास और उसमें तैरती विभाजन की सिसकियों को उन्होंने छूकर महसूस किया। दिल्ली में हिन्दी को एक बड़ी भाषा के रूप में उभरते हुए भी देखा। समग्र रूप में कह सकते हैं कि ‘मार्फ़त दिल्ली’ के माध्यम से कृष्णा सोबती ने उस दौर की यादों को ताजा किया है।

‘दिल्ली शहर दर शहर’ यह निर्मला जैन के शानदार अनुभवों और संस्मरणों की किताब है. शुरू के चार-पांच अध्याय पुरानी दिल्ली की संस्कृति और जीवन शैली को लेकर लिखे गए हैं। 14 अध्याय में दिल्ली के नक्श और नक्शेकदम तथा कोने-खित्तों और रग-रेशे की पड़ताल जितनी यथार्थवादी है उतनी सुंदर भी। पुरानी दिल्ली पर लिखते हुए लेखिका ने तिलिस्म रचा है, तो नई दिल्ली (ल्युटन की दिल्ली) के निर्माण होने का विवरण जितना ऐतिहासिक है, उतना रोचक भी। निर्मला जैन की यह कृति एक दिल्ली वाले की तरफ से अपने शहर को दिया गया उपहार है। यह किताब बीसवीं शताब्दी की दिल्ली के स्याह-सफेद और ऊँचाइयों-नीचाइयों के साथ न सिर्फ उसके विकास क्रम को रेखांकित करती है, बल्कि उन दिशाओं की तरफ भी इशारा करती है जिधर यह शहर जा रहा है, और जिन्हें सिर्फ वही आदमी महसूस कर सकता है जिसे अपने शहर से प्यार हो। हम नहीं जानते कि आज से मात्र 60-70 साल पहले यह शहर कैसा था, कैसी जिन्दगी पुरानी और असली दिल्ली की गलियों में धड़कती थी। इसमें साहित्य और शिक्षा के मोर्चों पर आजादी के बाद खड़ा होता हुआ देश भी है, आजादी के बाद की सूरतेहाल बयान करती हैं-दंगे, शरणार्थियों का आगमन, गांधीजी की हत्या, दिल्ली का बेतरतीब फैलते चले जाना। सच तो यह है कि पूरी किताब में वे इंसानी मूल्यों को समझ्ती हैं और उन ‘कद्रों’ की तलाश उनकी दिल्ली की तलाश है.

चन्द्रकान्ता की कृतियाँ जहाँ सामयिक व्यवस्था के विद्रूपों एवं स्त्री-विमर्श की जटिलताओं की तहें खोलती हैं, वहीं सम्बन्धों के विघटन और मनुष्य के यान्त्रिक होते जाने की विडम्बनाओं के बावजूद मूल्यों और विश्वासों की सार्थकता को नए आयाम देती हैं। कश्मीर पर तीन महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखने के बावजूद चन्द्रकान्ता का लेखन समय के ज्वलन्त प्रश्नों एवं वृहत्तर मानवीय सरोकारों से जुड़ा है। प्रस्तुत है, स्त्रियों की सोच, आकांक्षाओं, स्वप्नों और संघर्षों की सच्चाइयों से साक्षात्कार करवाने वाली चन्द्रकान्ता की पुस्तक ‘हाशिए की इबारतें’। अपने आत्मकथात्मक संस्मरणों के बहाने चन्द्रकान्ता ने स्त्री-मन के भीतरी रसायन को खँगाला है। वहाँ अगर अँधेरे तहखाने हैं, तो रोशनी के गवाक्ष भी हैं; चाहों का हिलोरता सागर भी है और प्यास से हाँफता रेगिस्तान भी।

लेखिका ने कहीं भी स्त्री विमर्श के झंडे नहीं गाड़े किंतु स्त्री अस्मिता के बारीक प्रश्न जरूर साहित्य में उठाए हैं।

संक्षेप में यदि कहें तो इस संस्मरणात्मक पुस्तक में तीन स्त्रियों के भीतरी रसायन को खंगाल कर लेखिका ने न केवल स्त्री मन की परख की है वरन्‌ समाज व स्वतंत्र भारत में पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं। कथा के मध्य परदा प्रथा, दहेज प्रथा, विधवा विवाह महिलाओं के लिए सदियों पुराने नैतिक मानदंड, शिष्टाचार, कड़े प्रतिबंध, संयुक्त परिवार के टूटने, सामाजिक रूढ़ियों आदि का विस्तार से वर्णन किया है।

‘कृति और कृतिकार’ पुस्तक में मृदुला गर्ग ने अपनी साहित्य यात्रा के सहयात्रियों पर इन स्मृति लेखों में जीवन के अंतरंग क्षणों के संस्मरणों को बड़े ही सहज रूप में प्रस्तुत किया है। दिलचस्प बात यह है कि इन संस्मरणों का जीवंत गद्य उबाऊ, बेढंगा, कृतिम गद्य नहीं है। इस गद्य में एक तरह की सर्जनात्मकता का स्वाद है।

‘कृति और कृतिकार’ शीर्षक इस कृति में ग्यारह सहयात्रियों के आत्मीय संस्मरण हैं। यहाँ हम अज्ञेय, जैनेंद्र, महादेवी वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, कृष्णा सोबती, राजेन्द्र यादव, योगेश गुप्त, दिनेश द्विवेदी, संगीता गुप्ता, सुनीता जैन तथा मंजुल भगत को एक साथ पाएँगे।

ममता कालिया को हिंदी के ज्यादातर पाठक एक कथाकार, उपन्यासकार के रूप में जानते हैं, लेकिन ‘कितने शहरों में कितनी बार’ पढ़कर संस्मरणकार के रूप में उनका एक अलग रूप सामने आता है। इस पुस्तक में लेखिका ममता कालिया की जीवनानुभूतियों के साथ मथुरा, नागपुर, पूना, इंदौर, दिल्ली, मुंबई, इलाहाबाद और कलकत्ता की सामाजिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं साहित्यिक स्थितियां, वहां की संस्कृति, परंपरा एवं समसामयिक संवेदनाएं व्यक्त हुई हैं। पुस्तक में कई वरिष्ठ और विशिष्ट साहित्यकारों से संबंधित स्मृतियां भी हैं, जो तत्कालीन साहित्यिक गतिविधियों और प्रवृत्तियों को संकेतित करती हैं।

वे उन शहरों को याद कर रही हैं जहां वह रहीं और जहां की छवियों को कोई हस्ती मिटा नहीं सकी। रचनाकार में प्रारम्भिक जीवन के शहरों की यादें। जाहिर है कि यह महज याद नहीं है, यह है जीवंत गद्य द्वारा अपने ही छिपे हुए जीवन की खोज और उसका उत्सव। इस संस्मरणात्मक पुस्तक में लेखिका ने विभिन्न शहरों के गतिमान चरित्र को पकड़ते हुए व्यक्ति और समाज पर होने वाले उनके दूरगामी प्रभाव को अंकित किया गया है।

ममता कालिया ने ‘कल परसों के बरसों’ पुस्तक में छोटे-छोटे संस्मरणों में अपने दायरे में आए ख्यात लेखकों की स्मृतियाँ संजोयी हैं। मार्कण्डेय और शिवानी, ज्ञानरंजन और विष्णुकांत शास्त्री, लगभग साठ वर्षों के वृहद दायरे में फैले इन संस्मरणों में ममता कालिया अपने पूरे रचनात्मक वैभव में दिखाई देती हैं।

इन संस्मरणों का मूल्य भी यही है कि ये हमारे समय के उन साहित्यकारों से रु-ब-रु हैं जिन्होंने समय की सच्चाइयां बताने में जीवन होम किया।

ममता इन साहित्य नायकों की प्रतिष्ठा करती हैं लेकिन प्रतिमाओं को न खुरचती हैं, न संवारती हैं, हाँ प्रतिमा को ठीक से देख-जान सकें, यह जतन भर किया है।

‘इत्यादि’ गगन गिल का स्मृति-आख्यान है, जहाँ सबकुछ उनसे जुड़ा है। इस सबकुछ में आगत भी है और विरासत भी। इन स्मृतियों में पॉल एंगल, लुत्से जी, दार जी, रिनपोछे, कृष्णनाथ और शंख घोष हैं और इनमें उन सभी की अपनी स्मृतियाँ भी शामिल हैं। ये स्मृति-आख्यान उस नदी की तरह हैं, जिसमें कई धाराएँ आकर मिलती रहती हैं और जो ख़ुद बलखाती-इठलाती अविरल बहती चली जाती है। गगन जी की स्मृतियाँ बहुत-से कड़वे प्रसंगों से भी जुड़ी हैं, लेकिन इनमें कोई कड़वाहट या नकारात्मकता नहीं है। इनमें कुछ है तो एक हूक है और अकुलाहट है। स्मृतियों की तरह इन आख्यानों में जिज्ञासा भी साथ-साथ चलने वाली सदानीरा है।

जीवन के विविध प्रसंगों में गगन ख़ुद को भिन्न-भिन्न रूपों में देखती हैं। 1984 के दंगों से बच निकली एक युवा लड़की, 2011 में सारनाथ में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेती एक प्राचीन स्त्री, 2014 में कोलकाता में शंख दा से पहली ही भेंट में गुरुदेव टैगोर के बारे में बात करती हुई लगभग ज्वरग्रस्त एक पाठक। इस किताब में हम उन्हें उपनिषद् काल की ऐसी विदुषी के रूप में पाते हैं, जो जीवन, सुख-दु:ख और आनंद से जुड़े उत्तरों की तलाश में एक अनंत यात्रा पर है।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि आदि अनेकानेक संस्मरण इस बात के प्रमाण हैं कि संस्मरण विधा वर्तमान समय में न सिर्फ आगे बढ़ रही है, बल्कि अन्य साहित्यिक विधाओं को अच्छी खासी चुनौती भी दे रही है। महिला लेखिकाओं नें संस्मरण की विधा को जिस तरह पुनर्स्थापित किया है वह हमारे समय की अनूठी और अप्रतिम साहित्यिक उपलब्धि मानी जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।

संदर्भ सूची

आधार ग्रंथ

  1. हमहशमत भाग-3 – कृष्णा सोबती, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2012
  2. मार्फ़त दिल्ली – कृष्णा सोबती, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2018
  3. दिल्ली शहर दर शहर – निर्मला जैन, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2016
  4. हाशिये की इबारतें – चंद्रकांता, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2009
  5. कृति और कृतिकार – मृदुला गर्ग, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, संस्करण-2013
  6. कितने शहरों में कितनी बार – ममता कालिया, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2010
  7. कल परसों के बरसों – ममता कालिया, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2011
  8. इत्यादि – गगन गिल, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2019

सहायक ग्रंथ

  1. गद्य की पहचान – अरुण प्रकाश, अंतिका प्रकाशन, संस्करण-2012
  2. हिंदी का गद्य साहित्य – डॉ. रामचन्द्र तिवारी, विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण-2014
  3. हिंदी का संस्मरण साहित्य – डॉ. राजरानी शर्मा, शोध-प्रबंध प्रकाशन, संस्करण-1970
  4. हिंदी का संस्मरण साहित्य- डॉ. कामेश्वरशरण सहाय, विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण-1982
  5. साहित्यिक विधाएं: पुनर्विचार – डॉ. हरिमोहन, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2005
  6. हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली – डॉ. अमरनाथ, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2018
  7. कथेतर – माधवहाड़ा (सम्पादन), साहित्य अकादेमी प्रकाशन, संस्करण-2017

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