दलित महिला रचनाकारों की आत्मकथाओं में अभिव्यंजित व्यथा

विजयश्री सातपालकर
शोधार्थी,
कार्मेल कला, वाणिज्य एवं विज्ञान महाविद्यालय,
मडगाव-गोवा
7875507882
vijayshri_1996@rediffmail.com________________________________________________________

शोध सारांश

महिला आत्मकथाकारों में कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ एवं सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ उल्लेखनीय है। पुरुष लेखक की तुलना में दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं उतनी मात्र में उपलब्ध नहीं है। भारतीय वर्ण व्यवस्था के तले दलित स्त्रियाँ ने मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा की दोहरी मार सही है। प्रस्तुत लेख में कौशल्या बैसंत्री कृत ‘दोहरा अभिशाप’ और सुशीला टाकभौरे कृत ‘शिकंजे का दर्द’ आत्मकथाओं में अभिव्यक्त व्यथा का चित्रण किया गया है।

बीज शब्द

आत्मकथा, दलित महिला, दृष्टिकोण, अस्मिता, विमर्श

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आमुख

आत्मकथा हिन्दी साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण विधा है। हिन्दी के प्रख्यात रचनाकारों ने अपनी आत्मकथा को सबके समक्ष प्रस्तुत कर आत्मकथा विधा को और चर्चित कर दिया है। मनुष्य कोई भी हो उसके जीवन में उतार-चढ़ाव आता ही है। आत्मकथा में इन्हीं बिन्दुओं के साथ अन्य कई बिन्दु आत्मकथाओं में दृष्टिगत होते हैं। विशेषतः दलित आत्मकथाओं में संत्रास, पीड़ा, संघर्ष, अत्याचार, अपमान, अवहेलना, व्यथा आदि देखने के लिए मिलता है। आत्मकथा में रचनाकार जीवनानुभूतियों को अभिव्यक्त करता है। डॉ. बच्चन के अनुसार आत्मकथा का अर्थ ‘आत्म चित्रण’ है। अस्मिता विमर्श उभरने के बाद आत्मकथाओं में गति आने लगी। “आत्मकथा लेखन में एक नया मोड़ आता है अस्मिता विमर्श के उभार के बाद। लंबे समय तक आत्मकथा लेखन उपेक्षित पड़ा रहा। अस्मिता विमर्शों के बाद समाज के वंचित एवं उपेक्षित समुदाय की यातना कथा सामने आने लगी तो आत्मकथा लेखन एक बार महत्वपूर्ण हो उठा। ‘पर्सनल इज पॉलिटिकल’ की तर्ज पर वंचित समुदायों की जीवन कथा महत्वपूर्ण हो गई। यही कारण है कि चाहे दलित विमर्श हो या स्त्री विमर्श में आत्मकथाएं बड़ी संख्या में सामने आई।”1

हिंदी साहित्य में सर्व प्रथम दलित आत्मकथा 1995 में प्रकाशित मोहनदास नैमिशराय कृत ‘अपने-अपने पिंजरे’ को माना जाता है। और यहा से दलित आत्मकथाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है। महिला आत्मकथाकारों में कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’ एवं सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ उल्लेखनीय है। पुरुष लेखक की तुलना में दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं उतनी मात्र में उपलब्ध नहीं है। भारतीय वर्ण व्यवस्था के तले दलित स्त्रियाँ ने मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा की दोहरी मार सही है। “दलित पुरुष मात्र जातिभेद का शिकार हैं, जबकि दलित स्त्रियाँ जातिभेद के साथ-साथ लिंगभेद की दोहरी चक्की में पिसती आई हैं।”2 अपनी इसी त्रासदी को लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथाओं में चित्रित किया है। कौशल्या कृत ‘दोहरा अभिशाप’

कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ 1999 में प्रकाशित हुई। कौशल्या बैसंत्री ने अपने विवाहित जीवन में बहुत कष्टों का सामना किया। उन्होने विवाह के लगभग चार दशक तक यातनाएं सही। उनका विवाह एक स्वतंत्रता सेनानी से हुआ था जो भारत सरकार के उच्च पद पर स्थित होते हुये भी अपनी पत्नी पर जुल्म करता था। इसीलिए उनसे अलग होने के बाद ही लेखिका ने अपने पूरे जीवनानुभवों को कलमबद्ध किया।

कौशल्या ने आत्मकथा में अपने तीन पीढ़ियों की स्थिति को उजागर किया है। “कौशल्या बैसंत्री ने अपनी इस आत्मकथा में अपनी तीन पीढ़ियों की दलित स्त्रियों की जिजीविषा को रेखांकित किया है। आत्मकथा में यह समाज में व्याप्त रूढ़िवाद, जातिवाद से उत्पन्न छुआछूत, भेदभाव, पूर्वाग्रह और स्त्रियों के प्रति हिन नजरिया, गरीबी, भुखमरी, दलित महिला हिंसा को सभ्य समाज के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। लेखिका ने अपनी अभिव्यक्ति के साथ-साथ उनके आस-पास हो रही हिंसा को बड़ी गंभीरता से महसूस किया और उन पर भी टिप्पणी की है।”3

कौशल्या जी का जन्म दलित परिवार में होने के कारण उन्हें बहूत सहना पड़ा है। वे बचपन से ही जातिभेद का शिकार रही है। निम्न जाति की होने के कारण स्कूल की शिक्षिका भी उनपर अत्याचार किया करती थी। बाल्यावस्था में उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। इसी आर्थिक बदहाली के चलते पाँचवी कक्षा में कौशल्या के माता-पिता फीस नहीं दे पाये। “बाबा ने हेड मिस्ट्रेस को आश्वासन दिया और उनके चरणों के पास अपना सिर झुकाया दूर से, क्योंकि वे अछूत थे, स्पर्श नहीं कर सकते थे। बाबा का चेहरा कितना मायूस लग रहा था उस वक्त! मेरी आँखें भर आयी थीं। अब भी इस बात की याद आते ही बहुत व्यतीत हो जाती हूँ। अपमान महसूस करती हूँ। जाति-पाँति बनाने वालों का मुंह नोचने का मन करता है। अपमान का बदला लेने का मन करता है।”4

कौशल्या जी ने तत्कालीन दलित स्त्रियों की स्थिति का भी वर्णन अपने आत्मकथा में किया। दलित स्त्रियों पर शारीरिक, मानसिक अत्याचार किया जाता था। जिससे विवश होकर वे आत्महत्याएं करने के लिए प्रवृत हो जाती थी। “सखाराम की औरत दिहाड़ी पर मजदूरी कर रही थी। वह सीमेंट-ईंटें ढोकर मिस्त्री को देती थी। वह देखने में सुंदर थी, मिस्त्री बदमाश था। वह आते-जाते उसे छेड़ता था। एक दिन उसने सीमेंट का गोला बनाकर उसकी छाती पर मारा। उस औरत ने उसे गलिया दी परंतु वह बेशर्म हँसता रहा। साथ में खड़े मजदूर भी देखकर हंस रहे थे। यह बात उस औरत ने अपने पति से कही पति का काम था जाकर उस बदमाश को डांटे फटकारे। परंतु उसने अपनी औरत को ही डाटना शुरू किया और कहने लगा कि तुम और औरतें भी तो वहाँ काम करती हैं, उन्हें वह कुछ नहीं कहता और तुम्हें ही क्यों छेड़ता है। तुम ही बदचलन हो, यह कहकर उसे रात भर घर के बाहर रखा वह बेचारी झाड़ी में छिपी रही क्योंकि उसके बदन पर पूरे कपड़े नहीं थे। रात में वह बस्ती के कुएं में कूद गई। सवेरे उसका शरीर पानी के ऊपर तैर रहा था। उसके माँ बाप आए और कहने लगे कि इसने हमारी नाक कटवाई अच्छा ही हुआ कि यह कुलटा मर गई।”5

यह लंबा उद्धरण दलित स्त्री की विवशता को भली भांति स्पष्ट करता है। इससे तत्कालीन समाज की मानसिकता को परखना आसान हो जाता है। पुरुष अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए स्त्री की गलती के बिना उसे ही कसूरवार ठहरता है। कौशल्या जी ने स्त्री होने के कारण बहुत अत्याचार सहे। पुरुष के लिए स्त्री कभी मायने नहीं रखती थी। स्त्री उसके लिए उपभोग की वस्तु मात्र थी। कौशल्या जी का वैवाहित जीवन कभी सुखी नहीं रहा। उनके पति लेखक और स्वतंत्र सेनानी थे अपने पति के बारे में वह लिखती हैं “देवेंद्र कुमार को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और शारीरिक भूक मिटाने के लिए चाहिए थी। दफ्तर के काम और लिखना यही उसकी चिंता थी। मुझे किस चीज की जरूरत है, उसका उसने कभी ध्यान नहीं दिया।”6

लेखिका के पति उच्च शिक्षित होकर भी अपनी पत्नी को कभी सम्मान नहीं दे पाए। पितृसत्तात्मक समाज ने कभी स्त्री को उसका अधिकार नहीं दिया। कौशल्या जी आत्मकथा की भूमिका में लिखती हैं, “पति ने कभी मेरी कदर ही नहीं की बल्कि रोज-रोज के झगड़े, गालियों ने मुझे मजबूरन घर छोड़ना पड़ा और कोर्ट केस करना पड़ा।”7

कौशल्या ने अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का सदैव प्रतिरोध किया। उन्होने कुंठित जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा अधिकार के लिए लड़ने की प्रेरणा दी है। लेखिका को दलित होने के लिये प्रताड़ित भी किया जाता था किन्तु वह निर्भय होकर उनका प्रतिरोध किया करती। एक बार लेखिका ने अपने मोहल्ले में बी. सी डाल दी । उसमें अधिकतर ब्राह्मण महिलाएँ थी, जिन्होंने कौशल्या पर आपत्ति जताई तब लेखिका ने अपनी आवाज बुलंद की, “आपने मुझे मुझसे मेरी जाति नहीं पूछि। क्या मैं अपनी जाति का पोस्टर पीठ पर चिपका कर रखूँ? आप सभ्य नहीं लगती। सभ्य आदमी जाति-पाँति का विचार अपने मन में नहीं रखते और जाति-पाँति मानने वालों से मैं अपना संपर्क नहीं रखती मुझे पहले पता होता कि आप जाति-पाँति मानती हो तो मैं स्वयं आपके चिटफंड में नहीं आती।”8

सुशीला टाकभौरे कृत “शिकंजे का दर्द”

सुशीला का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बानापुरा गाँव में दलित परिवार में हुआ। उस गाँव में छुआछूत, उंच-नीच, जातिभेद की भावना हर जगह विद्यमान थी। निम्न जाती के लोग जिनमें भंगी हरिजन शामिल थे। उनके घर गाँव के बाहर ही थे। उन्होने शिक्षा को ज्यादा महत्व नहीं दिया। उनका मानना था “बच्चों को पढ़ाकर का होयगो? अपनी जात तो वही रहेगी। काम, रोजगार तो अपनी जात के ही करनो पड़ेगों फिर क्यों बच्चों को परेशान करें?”9

किन्तु सौभाग्यवश सुशीला के माता-पिता शिक्षा की महत्ता को जानते थे। तमाम जटिलताओं के बावजूद उन्होंने सुशीला को पढ़ाया। सुशीला को स्कूल में भी जातिभेद का शिकार होना पड़ा। तत्कालीन समाज में छुआछूत का इतना प्रभाव था कि बच्चे अपने हाथ से पानी भी लेकर नहीं पी सकते थे। उन्हें फर्श पर बैठना पड़ता था। अपने ऊपर होने वाले शोषण से पीड़ित होकर लेखिका ने स्वयं को हिन्दू मनाने से भी इंकार किया है। “हिन्दू धर्म में नदी, पहाड़, पेड़-पौधे, जानवर  सभी को महत्व और सम्मान दिया जाता है, लेकिन अछूत मनुष्य को कोई सम्मान नहीं। हिन्दू धर्म के आडंबर में मिट्टी से बने पुतलों को भी भगवान की तरह पुजा जाता है मगर इंसान को इंसान नहीं मानते। यह हिन्दू धर्म की विडम्बना है, हिन्दू संस्कृति का कलंक है। लोग इसे ही धर्म कहते है।”10

भारतीय वर्ण व्यवस्था के तहत वर्षों से दलितों का शोषण किया जा रहा है। उन्हें नारकीय एवं उपेक्षित जीवन जीने के लिए बाध्य किया जाता है। लेखिका अपने आत्मकथा के माध्यम से दलित समाज, दलित स्त्री की स्थिति, लाचारी, विवशता को स्पष्ट किया है।

मनुवादी व्यवस्था ने दलितों को कभी कुछ समझा ही नहीं। “मनुस्मृति में अछूतों को शिक्षा से दूर रहने के निर्देश दिये गए हैं। समाज में इन निर्देशों का पालन श्रद्धा और निष्ठा के साथ किया जाता था।”11

इस मानसिकता के चलते दलित शिक्षा से सदैव दूर ही रहा। किन्तु सुशीला के परिवार वाले खास कर उनकी माँ ने उनका साथ दिया। सुशीला ने बाल्यावस्था में प्रतड़ाना सहीं थी किन्तु वह जान गई कि इन सबसे छूटकारा उन्हें शिक्षा प्राप्ति से ही मिलेगा। अपनी मन की व्यथा वह इस तरह बयान करती है, “सच यह था  कब आया योवन जान न पाया मन। शिकंजे में जकड़ा जीवन कभी मुक्त भाव का अनुभव ही नहीं कर पाया। जिंदगी एक निश्चित की गई लीक पर चलती रही। वह उमंग कभी मिली ही नहीं जो योवन का अहसास करती। उम्र के साथ कटु अनुभूतियों के दंश महसूस होते रहे। पीड़ा से छटपटाता मन मुक्ति का ध्येय लेकर आगे बढ़ता रहा। तब मुक्ति का मार्ग मैंने शिक्षा प्राप्ति को ही माना था।”12

समाज की उलाहना, शोषण, उपेक्षा, तिरस्कार सहते हुए सुशीला शिक्षा ग्रहण करती रही। स्कूल में सब उनका मज़ाक उड़ाया करते थे। कक्षा में सिर्फ शिक्षक सवर्णों पर ही ज्यादा ध्यान देते थे। दलित बच्चों को स्वर्णों के पिछली पंक्ति में बिठाया जाता। एक दिन सुशीला पहली पंक्ति में बैठ जाती है तब गुरुजी उन्हें डांटकर कहते है , “सुशीला तुम आगे क्यों बैठी है। तुम्हें पीछे बैठना चाहिए।”13

सुशीला को लगता है कि उनकी नानी गंदा साफ करती है इसीलिए उन्हें कोई सम्मान नहीं देता। नानी मौसम की परवाह किए बिना अपना काम करती बारिश में गंदा उठाकर टोकरी में भरकर सर पर रखकर दूर फेंक देती। इसी पर वह अत्यंत शुब्द्ध होकर कहती है, “यह सब तेरी करतूत है भगवान। जात पांत क्यों बनाई? हम ही क्यों करे ये नरक सफाई का काम।”14

तमाम उपेक्षा के बावजूद लेखिका सबकुछ सहते हुए आगे बढ़ती रही। लेखिका जानती थी कि शिक्षा दलितों की समस्या का हल है। उम्र के साथ जीवन के हर कदम पर उन्हें समाज के लोगों ने दलित होने के कारण उनके साथ दुर्व्यवहार किया। दलित स्त्री की परिस्थिति शिकंजे में फंसे पक्षी की भांति है जो अपने मुक्ति के लिए छटपटाता है। यह जाती रूपी शिकंजा दलित स्त्री का जीवन दुखमय करता है। इसी शिकंजे के दर्द को लेखिका ने अपने आत्मकथा में व्यक्त किया है।

सुशीला के शिकंजे की जकड़न विवाह के पश्चात और कसती गई। उनका सुंदरलाल टाकभौरे के साथ अनमेल विवाह था। उनमें बीस साल का अंतर था। पितृसत्तात्मक समाज के तहत सुशीला अपने पति का अत्याचार सहने के लिए विवश थी। पति का मारना मिटना, सास-ननद के ताने सुनना आदि। सुशीला जी घरेलू हिंसा का शिकार थी। आत्मकता में हर जगह इस व्यथा को देखा जा सकता है। “स्कूल से या बाहर से आने के बाद कभी-कभी टाकभोरे जी मेरे सामने पैर लंबे कर देते। मेरा ध्यान न रहने पर हाथों से इशारा करके जूते उतारने के लिए कहते। मैं चुपचाप उनके पैरों के पास बैठकर जूते के फिते खोलती जूते उतारती, मौजे उतारती। यह बात मुझे अजीब लगती थी।” 15

इससे पुरुष सत्तात्मक मानसिकता का पता चलता है। पुरुषों ने कभी स्त्रियॉं को अपने बराबर नहीं समझा। सदैव उन्हें भयभीत रखा और केवल उपभोग की वस्तु ही समझा। स्त्री को धमकाकर उन पर अधिकार जमाकर अपनी सत्ता को कायम रखा है। सुशीला जी के लिए पति द्वारा मार-पीट, गाली-गलौच, नौकरनी जैसा व्यवहार करना आम बात हो गई थी। “कभी कभी वे स्पष्ट शब्दों में कहते थे। मेरे पैर पर अपना सिर रखकर माफी मांग तब मैं तेरी बात मानूँगा।”16

कटु जीवनानुभूतियों को सहने के पश्चात सुशीला जी ने अपनी हक की लढाई लड़ना शुरू कर दिया। जुल्म करने से ज्यादा जुल्म सहनेवाला होता है। यह बात लेखिका जान गई। सड़ी गली परंपरों, रूढ़ियों से टकराने का साहस जुटाकर समाज उद्धार के कार्यों में सक्रिय हो गयी। लेखिका लेखन कार्य, दलित-साहित्य सम्मेलनों, चर्चाओं में भाग लेने लगी, दलित साहित्य से संबन्धित स्वयं की पुस्तकें प्रकाशित कर हिन्दी दलित साहित्य में अपनी पहचान बनाई।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि इन आत्मकथाओं में दलित होने के कारण दलितों पर होने वाले अत्याचार, शोषण, प्रताड़णा, उपेक्षा, हीनता, व्यथा को देखा जा सकता है। भारतीय वर्ण व्यवस्था के तले दलित सदैव से ही पिसता आ रहा है। दलित आत्मकथायें दहकता हुआ दस्तावेज़ साबित हो रही है। इन आत्मकथाओं में दलित होने के साथ ही एक स्त्री पर होने वाले शोषण को व्यक्त किया है। इन लेखिकाओं ने कभी हर नहीं मानी। शिक्षा प्राप्ति को सारे दुखों का हल जानकार अपने जीवन में आगे बढ़ती रहीं।  

संदर्भ ग्रंथ :

1) अनामिका कुमारी, 2018, स्त्री आत्मकथा लेखन के प्रेरक तत्व:, रिसर्च रिविऊ इंटरनेशनल जर्नल औफ़ मल्टीडिसिप्लिनरी, पृ. 576।

2) डॉ. राजेश्वरी, 2016, प्रतिरोध के स्वर बुलंद करतीक दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएं: शब्द ब्रह्म, , volume 4, पृ॰6।  

3) रजनी तिलक, 2018, ‘हिन्दी दलित साहित्य में स्त्री चित्रण व पितृसत्ता’, समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन आत्मकथा:, स्वराज प्रकाशन दिल्ली, पृ॰ 45।

4) कौशल्य बैसंत्री, 2012, दोहरा अभिशाप, परमेश्वरी प्रकाशन, पृ॰ 47।

5) कौशल्य बैसंत्री, 2012, दोहरा अभिशाप:, परमेश्वरी प्रकाशन, पृ॰ 56।

6) वहीं,

7) वहीं, पृ॰ 7

8) वहीं, पृ॰ 116

9) सुशीला टाकभौरे,  2014, शिकंजे का दर्द वाणी प्रकाशन, पृ॰ 16।

10) वहीं, पृ॰ 51

11) वहीं, पृ॰ 16

12) वहीं, पृ॰ 19

13) वहीं, पृ ॰ 22

14) वहीं, पृ॰ 26

15) वहीं, पृ॰ 143

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