बौद्ध धर्म और थेरी गाथाएँ –स्त्री मुक्ति का युगांतकारी दस्तावेज़

डॉ हर्ष बाला शर्मा 
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर(वरिष्ठ प्रवक्ता)
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज 
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 

यह आलेख थेरी कही जाने वाली स्त्रियों द्वारा गाए गए गीतों (जिनकी भाषा मूलत: पालि है) के भीतर छिपे उनके साहस और उनकी अन्तर-वेदना की खोज प्रस्तावित करता है. प्राय: प्राचीन भारत के सन्दर्भ में गार्गी, अहल्या और लोमशा के जिक्र के पश्चात स्त्रियों के स्वर विशेषकर साहसी स्वर की चर्चा नहीं मिलती| यहाँ भाषा के स्तर पर भी एक परिवर्तन दृष्टव्य है| जब तक संस्कृत उच्च वर्ग की भाषा के रूप में स्थापित रहती है तब तक स्त्री तथा अन्य वर्णों का प्रवेश उस भाषा के भीतर नहीं होता ज्यों-ज्यों भाषा वैदिक रूप से लौकिक रूप की ओर अग्रसर होती है त्यों त्यों स्त्री तथा अन्य वर्णों के रचनाकार भाषिक संसार में प्रवेश करते दिखाई देते हैं| थेरी गाथाओं के अंतर्गत 73 थेरियों द्वारा गाए गए गीतों का संग्रह है जिसमें ब्राह्मण से लेकर निम्नतम वर्ण की स्त्रियों के उदाहरण हैं| कुछ कष्टों से घबराकर, कुछ परिवार द्वारा जबरन तो कुछ समस्त सुखों को छोड़कर स्वयं अपनी इच्छा से संघ में दीक्षित हुईं| कभी इन स्त्रियों की उपस्थिति को अवांछनीय माना गया तो कभी चमत्कारी! परन्तु ये स्त्रियाँ समस्त आलोचना सहकर भी संघ को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुईं|

यहाँ कई प्रश्न एक साथ उत्पन्न होते हैं—-

प्रथम यह कि क्या ये स्त्रियाँ सचमुच शिक्षित थी जो अपनी बात को लेखन में अभिव्यक्त कर सकीं?

यदि नहीं तो थेरी गाथाओं का संकलन किसके द्वारा किया गया? यदि हाँ तो शिक्षित समाज में स्त्रियों के संघ में प्रवेश को लेकर किस प्रकार की प्रतिक्रिया हुई?

महात्मा बुद्ध स्वयं स्त्रियों के संघ में प्रवेश को लेकर सहज नहीं थे, ऐसे में हम सब जानते हैं कि आनंद द्वारा बुद्ध से इस प्रवेश की अनुमति ली गई. फिर इतना साहस इन स्त्रियों के भीतर किस प्रकार मिलता है कि वे अपनी बात को न केवल सुस्पष्ट शब्दों में कह सकीं बल्कि अर्हत बनने की योग्यता भी हासिल कर सकीं?

80 ई.पू. त्रिपिटक में इसका लिखित रूप मिलता है. क्या उससे पूर्व ये गीत मौखिक साहित्य में प्रचलित रहे होंगें? मौखिक साहित्य के रूप में उपलब्ध ये गीत क्या सचमुच इन स्त्रियों के लिए समय काटने का साधन रहे होंगे अथवा जैसा कि ये थेरियाँ बार-बार कहती हैं— सुमुत्तिका सुमुत्तिका साधु मुत्तिकाम्हि तो क्या वे वास्तव में मुक्ति के स्वरूप को पहचान चुकी थीं|

थेरी गाथाओं के भीतर समाज, परिवार, दास प्रथा, वेश्यावृत्ति से लेकर समपूर्ण सामाजिक- आर्थिक प्रणाली को देखने की जिन दृष्टियों का विकास किया गया है, उनका इस प्रपत्र में अध्ययन किया गया है| लगभग 73 थेरियों के 522 गीतों के भीतर की दुनिया में प्रवेश करने का यह एक छोटा सा प्रयास है जिसमें थेरियों के माध्यम से उस समय की सामाजिक संरचना को समझा जाएगा, साथ ही संघ के प्रति थेरियों के दृष्टिकोण को भी समझने की कोशिश होगी क्योंकि आश्चर्यजनक रूप से इन स्त्रियों ने जिस संघ को मुक्ति के दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया, आवश्यकता पड़ने पर उस संघ की भी आलोचना करने से भी उन्होंने परहेज नहीं किया|

इस साहस की और संघर्ष की उस यात्रा को मैं रेखांकित करना चाहती हूँ जिसने आने वाले युग में स्त्रियों को रचने और सोच का साहस प्रदान किया| यह भी रेखांकित करने की आवश्यकता है कि समस्त साहस पाश्चात्य शास्त्र से ही प्राप्त नहीं होता, थेरी स्त्रियाँ भारत की स्त्रियों के प्रयास और दमघोटूं वातावरण से निकलने के प्रयास की भी प्रतीक हैं जिन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए|

की-वर्ड्स –थेरी-गाथा, थेरियाँ, गीत, संघ, मुक्ति, हिन्दी भाषा, पाली साहित्य, सामाजिक मुक्ति, साहस,प्रतीकात्मकता, त्रिपिटक

आलेख

किसी भी काल को समझने के लिए दो दृष्टियाँ सहायक होती हैं—एक जो उस काल और परिस्थिति से उपजी हैं और दूसरी जो लम्बे संघर्ष के दौरान निर्मित हुई है. दोनों की दृष्टियों की अपनी सीमाएं और संभावनाएं हैं परन्तु इन दोनों को मिलाजुला कर इतिहास ही एक समझ तैयार की जा सकती है|

स्त्री मुक्ति और अभिव्यक्ति की चर्चा सर्वप्रथम थेरी गाथाओं में मिलती है| महात्मा बुद्ध की इच्छा न होने पर भी आनन्द द्वारा बल दिए जानेके कारण इन स्त्रियों को संघ में प्रवेश प्राप्त हो सका| इसकी रचना को लेकर भी इतिहासकारों में मत-मतांतर है| न्यूमेन का मनना है कि थेरी गाथाओं की रचना स्त्री समाज द्वारा नहीं बल्कि पुरुषों द्वारा की गई है! बाद में कैथरीन ब्लैक स्टोन ने सिद्ध किया कि ये रचनाएँ स्त्रियों की है| क्षमा शर्मा ‘औरतें और औरतें’ नामक पुस्तक में लिखती हैं—“स्त्रियों को जब-जब अपनी बात कहने का मौका मिला है, उसने पूरी निडरता और साहस से अपनी बात को रखा है. भिक्षुणियों द्वारा ढाई हजार साल पहले लिखी गई ये गाथाएँ इस बात की प्रमाण हैं कि स्त्रियों के मन में अपनी स्थितियों को लेकर काफी असंतोष रहा होगा”1

कुल 73 थेरियों के संवाद इस ग्रन्थ में समाहित हैं तथा कुल 522 गाथाओं का संकलन किया गया है. थेरियों की पहचान और प्रशंसा का मूल मन्त्र पालि में लिखित उनके वे उदगार हैं जहाँ वे सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्ष करती हुई नजर आती है| थेरियों की इन कथाओं के केंद्र में मुक्ति का प्रश्न है—यह ध्यातव्य है कि मूसल से मुक्ति हो या सांसारिक राग द्वेष के दुश्चक्र से, स्त्रियाँ इससे मुक्ति के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं—सामाजिक दृष्टि से ये स्त्रियाँ ब्राह्मण वर्ग से लेकर दास और शूद्र समाज से भी हैं परन्तु उच्च से निम्न तक उनकी दशा और दिशा में कोई भिन्नता नहीं दिखाई देती-थेरी समाज की स्त्रियाँ अधिकांशत: ब्राह्मण वर्ग से आती हैं—वैदिक धर्म के प्रति अनास्था तथा पारिवारिक स्थितियों के भीतर दमघोंटू वातावरण के प्रति विरोध भाव से भरकर ये स्त्रियाँ बौद्ध धर्मं के प्रति आकर्षित होती हैं| इन गाथाओं में मार( काम)के प्रति विरोध भाव भी मिलता है तथा मार के साकार रूप में आकर इन स्त्रियों को प्रलोभित करने के प्रसंग भी मिलते हैं—–

प्रसंगत: यह विचार करना उचित ही होगा कि ऐसे प्रलोभन स्त्रियों के समक्ष किसी मार ने तो नहीं परन्तु समाज के उन लोलुप पुरुषों ने ही रखे होंगे जो उनके रूप और यौवन पर अधिकार की चेष्टा कर रहे थे| यह अंदाज लगाना कतई कठिन नहीं कि अनेक रूपवती स्त्रियाँ स्वयं अपनी इच्छा से नहीं बल्कि उन तथाकथित मार(कामी पुरुष) से बचने और अपनी रक्षा करने में असमर्थता बोध से घिर कर भी संघ में प्रव्रजित हुई थीं, तथा अपने भीतर की इच्छाओं को सांसारिक तृष्णा मानकर उसका त्याग भी अचानक किसी विशेष क्षण में नहीं किया बल्कि मन को समझाने में एक लम्बे समय तक संघर्ष किया तब उन सांसारिक कहे जाने वाले मार्ग से वे स्वयं को मुक्त कर सकी|

दूसरी संख्या उन स्त्रियों की है जो पति अथवा संतान को खोकर अथवा अपने किसी प्रिय के मृत्यु शोक से विह्वल होकर संघ की ओर आकर्षित हुई अथवा मुक्ति के लिए आई| पटाचारा का उल्लेख अर्हत्व प्राप्त थेरी के रूप में मिलता है| यदि पृष्ठभूमि की ओर दृष्टिपात किया जाए तो संतानों और पति की मृत्यु के पश्चात् स्वगृह की ओर रोती – बिलखती जाती स्त्री को माता-पिता की मृत्यु की भी सूचना मिलती है| विह्वलता के इन चरम क्षणों में उसे बुद्ध की वाणी में शान्ति प्राप्त होती है!

इस सन्दर्भ में दो कथाओं की चर्चा अत्यंत महत्वपूर्ण है— एक कथा श्रावस्ती के श्रेष्ठि कुल की कन्या-उत्पल वर्णा तथा दूसरी वैशाली की नगरवधू आम्रपाली|

यह स्वयं में अत्यंत शोचनीय और विचारणीय तथ्य है कि आम्रपाली(अम्बपाली) की सुन्दरता से अभिभूत होकर वैशाली के राजकुमारों ने उससे विवाह करने की इच्छा जाहिर की| यह इच्छा इतनी बलवती हो गई कि परस्पर कलह की स्थिति उत्पन्न हो गई| इस कलह से मुक्ति पाने के लिए पंचायत ने निर्णय सुनाया कि राजकुमारों के मध्य परस्पर कलह चूंकि समाज के हित के लिए उचित नहीं इसलिए आम्रपाली को सभी की समान्य पत्नी( उप पत्नी-वेश्या) बना दिया गया!—‘सब्बेसं होतु’ आम्रपाली को गणिका बनाने के लिए कितना सरल तथ्य! समाज ने उस स्त्री की इच्छा और अनिच्छा को जाने बिना पितृसत्ता का कितना भयावह प्रयोग किया? आम्रपाली के सम्बन्ध में यह विचार भी किया जाना चाहिए कि उसे अपने शरीर से वितृष्णा बुद्ध के प्रव्रज्या सन्देश मात्र से हुई अथवा इतने पुरुषों द्वारा उसके शरीर के निरंतर उपभोग के कारण !

आम्रपाली लिखती है—

एदिसो अहू अयं समुस्स्यो, जज्जरो बहुदुखानमालयो /सोपलेप पतितो जराघरो….”

अर्थात एक समय यह शरीर सौन्दर्ययुक्त और शक्तिवान था, आज यह जर्जर और अनेक दुखों का घर है| आज वर्ष 2017 में इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि धर्म में दीक्षित होने के अतिरिक्त इन स्त्रियों के समक्ष और कोई रास्ता नहीं था! बौद्ध धर्म का वैशिष्ट्य उस संदर्भ में रेखांकित करना आवश्यक है कि इस धर्म ने उन स्त्रियों के लिए मार्ग बंद नहीं किए जिन्हें समाज ने या तो पतित मान लिया था अथवा पतित कर दिया था| यहाँ बौद्ध धर्मं में भी आनन्द की भूमिका और अधिक क्रांतिकारी रही होगी जिसने बुद्ध से तर्क करके भी स्त्रियों के लिए धर्म में स्वीकृति दिलवाई|

दूसरी स्त्री श्रावस्ती के श्रेष्ठि कुल की कन्या उत्पल-वर्णा है| इस कन्या की उम्र विवाह योग्य होने पर राजकुमारों ने इसके पिता को सन्देश दिए कि ‘उत्पलवर्णा को हमें दे दो’| धन और सम्मान होते हुए भी पिता सभी राजकुमारों को संतुष्ट करने में असमर्थ था( कितना भयावह होगा वह समाज जहाँ स्त्री के पास अपना सम्मान बचाने के लिए धर्म में दीक्षित होने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था) ऐसे में उस स्त्री के समक्ष प्रव्रज्या के अतिरिक्त कौन सी राह थी? उत्पल-वर्णा ने दीक्षा ली और ऋद्धि प्राप्त भिक्षुणियों में अग्रणी मानी गई| बुद्धि की तीक्ष्णता से ही उसे यह योग्यता प्राप्त हुई होगी, यह कहने की आवश्यकता नहीं! सौन्दर्य और बुद्धि की योग्यता से पूर्ण यह स्त्रियाँ जीवन और सुख न चाहती रही हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता परन्तु समाज के यौनाचार के समक्ष प्रव्रज्या लेने के अतिरिक्त कोई और राह इनके समक्ष दिखाई नहीं देती|

संघ में प्रव्रज्या लेने के पश्चात् भी ये स्त्रियाँ समाज की दूषित निगाहों से निरंतर बच सकी हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता! परन्तु अपने अर्हत्व, बुद्धि और विश्वास के बल पर इस थेरियों ने उन कामी पुरुषों (जिन्हें मार कहकर सम्बोधित किया गया है) की कुटिल दृष्टि का सामना किया|

एक बड़ी संख्याँ उन स्त्रियों की है- जिन्होंने पारिवारिक त्रासदी के पश्चात संघ में दीक्षा ग्रहण की| पटाचारा अर्हत्व प्राप्त थेरियों में अत्यंत विशिष्ट मानी जाती है पर दीक्षा से पूर्व का जीवन उसके लिए अत्यंत कष्टकारक रहा| पारिवारिक मान्यताओं के विरोध में अपने घर के सेवक से विवाह करने का साहस जुटाने वाली स्त्री के रूप में वह सामाजिक और पारिवारिक कष्टों का सामना करती है –पति, सन्तान, माता पिता, भाई की मृत्यु कुछ ही दिनों के अन्तराल में होने से उसने अनेक कष्टों का सामना किया| अंतत: संघ में दीक्षित होकर उसने मन और मस्तिष्क को नियंत्रित किया| कथा सुनने में जितनी सरल लगती है—उससे अधिक आत्मपीडन और कष्ट की है| मन पर बुद्धि का नियंत्रण करने वाली ये स्त्रियाँ यदि वास्तव में ऐसा करने में सक्षम हो सकीं तो यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है| ऐसा नहीं कि बुद्धि पर व्यंग्य इन स्त्रियों को न सुनने पड़े हों— एक स्थान पर सोमा को सम्बोधित करते हुए मार(पितृसत्ता का प्रतीक) कहता है—

यं तं इसीहि पत्त्ब्बं ठानं दुरभि संभवं /न तं द्वयन्गुलपन्न्य, सक्का पप्पोतुमित्थिया ति | अर्थात जो स्थान ऋषियों को भी दुर्लभ है उसे दो अंगुली मात्र ज्ञान वाली स्त्री कैसे प्राप्त कर सकती है? यह उदाहरण मात्र सोमा के सन्दर्भ में नहीं बल्कि पुरुष समाज के स्त्री के प्रति दृष्टिकोण के सन्दर्भ में पढ़ा जाना चाहिए| इस अंगुली मात्र को स्पष्ट करते हुए भरत सिंह उपाध्याय लिखते हैं—“ सात-आठ वर्ष की अवस्था से ही स्त्रियाँ भात पकाना शुरू कर देती हैं किन्तु भात कब पाक गया, इसका वे ठीक से निर्णय तक नहीं कर सकती| जब तक दो-एक चावल हाथ से उठाकर अपनी आँखों से नहीं देख लेतीं| इसलिए उनकी प्रज्ञा को दो अंगुलि मात्र कहा गया है”2

ऐसे विचार आज भी देखने के लिए मिल जाते हैं पर सोमा उस युग और काल में भी जब स्त्रियों की शिक्षा दीक्षा के उदाहरण नहीं मिलते, मार का न केवल सामना करती है बल्कि प्रज्ञा को स्त्री-पुरुष संदर्भ से परे सिद्ध करती है| इस कथन के आलोक में यह कहना और स्वीकार करना अत्यन्त कठिन है कि ये स्त्रियाँ शिक्षित नहीं थी! सोमा का उत्तर है—

इत्थिभावो नो कि कयिरा चित्तम्ही सुसमाहिते…सम्मा धम्म विपस्ततो अर्थात स्त्री और पुरुष होना ज्ञान प्राप्ति से किस प्रकार सम्बद्ध है?

इसी प्रकार पूर्णा का उदाहरण भी समय और युग के सन्दर्भ में अत्यंत क्रांतिकारी है जहाँ वह एक ब्राह्मण से तर्क-वितर्क करते हुए उसे जल में स्नान करने से शुद्धि प्राप्त करने के संदर्भ में मार्ग दर्शाती है| उसका स्पष्ट मत है कि यदि जल में स्नान करने से मुक्ति मिले और पाप समाप्त हो जाएँ तो सभी पशु और पशु समान कर्म करने वाले मनुष्यों के लिए भी मुक्ति प्राप्त करना कितना सरल होगा! ब्राह्मण उसके मत से प्रभावित होकर न केवल संघ में दीक्षा लेता है बल्कि अब आचरण और कर्म के आधार पर स्वयं को ब्राह्मण स्वीकार भी करता है… पुन: इस बात पर बल देना होगा कि मुक्ति के पथ प्रदर्शन को भले ही धार्मिक पुस्तकों में मात्र बुद्ध की कृपा से इन स्त्रियों को ज्ञान प्राप्त होनी की चर्चा की गई है परन्तु मेरा स्पष्ट मत है कि बिना शिक्षा और आत्मिक ज्ञान के मुक्ति और ज्ञान का ऐसा समन्वय देखना सम्भव नहीं! यह स्त्रियाँ मुक्ति के सौन्दर्य का अनुभव कर चुकी हैं, इसीलिए तो मुत्ता थेरी कहती है—

So freed! So thoroughly freed am I! —

from three crooked things set free:

from mortar, pestle,

& crooked old husband.

Having uprooted the craving

that leads to becoming,

I’m set free from aging & death.3

मात्र कुबड़े पति से मुक्त होने की चर्चा नहीं बल्कि जीवन-मरण से भी मुक्ति का यहाँ उल्लेख है| आगे अपभ्रंश साहित्य में भी हमें इस इस मुक्ति का विकास दिखता है—मुंडे मुंडे मुंडिया /सिर मुंडे चित्तहु मुंडिया/चित्त्त्हम मुण्डनं जिम कियु /संसार हम खंडनं तिम कियु ….. चित्त की जिस मुक्ति के लिए संसार साधना करता आया है, ये थेरियाँ उसी मुक्ति का आस्वाद प्राप्त कर चुकी हैं—बुद्ध के सौजन्य से? अथवा भीतरी अंतर-राग-विराग से मुक्त होकर? अथवा संसार के प्रति भाव शून्य होकर? जो भी हो परन्तु आत्म पीड़ा से पर पीड़ा तक का साक्षात्कार करने वाली इन थेरियों के जीवन से स्त्री समाज का वह इतिहास आरम्भ होता दिखाई देता है जिसकी सिद्धि को पश्चिम का आभार न मानकर भारतीय परम्परा में देखे जाने की आवश्यकता है| यह लेख उसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है|

ऐसी अनेक थेरी स्त्रियों की चर्चा यहाँ की जा सकती है जिन्होंने कभी समाज को ज्ञान का सन्देश दिया तो कभी कामी पुरुषों से मुक्ति पाने के लिए स्वयं का ही अंग-भंग कर लिया| शुभा नाम की थेरी ने भ्रष्ट युवक के समक्ष समर्पण करने की अपेक्षा अपने नेत्र भंग करने को बेहतर मार्ग माना| सुमेधा अपनी इच्छा से प्रव्रजित हुई, कृशा पुत्र की मृत्यु के पश्चात पीड़ित और विह्वल होकर बुद्ध की शरण में गई, अनुपमा ने अपने तोल के बराबर आठ गुना सोना और रत्न पुरुषों से लेने की अपेक्षा संघ में दीक्षा लेना स्वीकार किया|

यह उदाहरण स्त्री संघर्ष की कथा कहते हैं—जिस समाज में स्त्री की देह-यष्टि के अतिरक्त कोई उपयोगिता न समझी गई वहाँ स्त्रियों ने न केवल प्रज्ञा सिद्धि प्राप्त की बल्कि कामी पुरुषों से लेकर सभ्य कहे जाने वाले समाज को भी मार्ग दिखाया| अभिरूपा नंदा जैसे उदाहरण भी मिलते हैं जिसे होने वाले पति की मृत्यु के कारण प्रव्रज्या लेने पर विवश किया गया! महाप्रजापति गौतमी ने इन स्त्रियों को दीक्षा दी और पटाचारा की भी अनेक शिष्याएँ बनीं| गुरु शिष्य परम्परा से बनी ये स्त्रियाँ आने वाले न जाने कितने युगों और सदियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेंगीं| साथ हेई इतिहास में झाँक कर देखने के लिए भी विवशा करेंगी कि अक्सर लिखित शब्दों के परे साहित्य कुछ वाचिक प्रतिध्वनियों का भी निर्माण करता है,जिसके लिए शब्दों के भीतर झांक कर देखना भी जरूरी है|

धन्यवाद

सन्दर्भ ग्रन्थ:

1 .औरतें और औरतें, क्षमा शर्मा, पृष्ठ 34

2 . थेरी गाथा, भरत सिंह उपाध्याय, पृष्ठ 57

3 . http://www.accesstoinsight.org/tipitaka/kn/thig/thig.01.00x.than.html#sutta-3

4 . सभी पालि उदाहरण उपरोक्त पुस्तक से

 

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