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स्त्री की अपनी इच्छाएं, जीवन के प्रति उसके अपने एप्रोच को तवज्जु दिए बगैर न तो स्त्री को समझा जा सकता है, न जेंडर समानता को, न स्त्री के प्रेम को और न ही स्त्री-विमर्श को। स्त्री-विमर्श को समझने के लिए स्त्री की ऑटोनोमी को समझना अनिवार्य है। यही कारण है कि लेखिका स्त्री को उसकी स्वायत्तता के प्रति जागरूक करती हैं।
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मकालीन आलोचना जगत् में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। एक आलोचक के साथ-साथ आप एक सफल सर्जक, इतिहासकार, गद्यकार एक कुशल अध्यापक और एक अच्छे शिष्य भी रहे हैं । आमतौर पर माना जाता है कि एक सफल आलोचक का सफल सर्जनात्मक लेखक होना या सफल सर्जनात्मक लेखक का सफल आलोचक होना प्रायः संभव नहीं होता लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने साहित्य के माध्यम से इस मान्यता को गलत साबित किया है ।
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नीचे से आए लंबे तगड़े सेहतमंद लोग माल रोड पर घूमते हैं तो शिमला के लोग मरियल ट्टूओं की तरह इधर-उधर छिपते फिरते हैं. पड़ोसी राज्य लंबे तगड़े लोगों से भरे पड़े हैं. हालांकि यहां भी कहीं कहीं गांव में तगड़े लोग जा पाए जाते होंगे जैसे सिरमौर में ग्रेट खली अवतरित हुआ है. मगर वह एक अपवाद है.
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नेहा की शादी थी। शादी में सभी लोग इकट्ठा हुए थे। सभी नात-बात एक दूसरे से बतियाने में मशगूल थे। नेहा के मामा ग्राम प्रधान थे। वह बोलेरो गाड़ी से चलते थे। क्षेत्र के विधायक मंत्री से उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। उन्होंने विधायक मंत्री जी को भी निमंत्रण दिया था। विधायक जी लखनऊ में बहुत अधिक व्यस्त थे। इसलिए विधायक जी की पत्नी मंत्राइन जी क्षेत्र में विवाह कार्यक्रम में शरीक होने अपने दल-बल के साथ पहुँची। नेहा के मामा मंत्राइन जी की खातिरदारी करने में व्यस्त हो गये। ग्रामीण राजनीति की पारखी कुछ महिलायें भी मंत्राइन जी के साथ लग लीं। वे बड़े सलीके से मंत्राइन जी को वर-वधू के स्टेज पर ले गयीं।
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सिसृक्षा अद्वैत की कविताएँ
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रमणिका गुप्ता हमारे समय और संदर्भ की एक ऐसी रचनाकार हैं जिन्होंने दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श को एक नई जमीन दी है. उन्होंने आजीवन उस कौम को सशक्त करने का काम किया जो किसी भी तरह के उत्पीड़न का शिकार रहे. अपनी पत्रिका ‘युद्धरत आम आदमी’ के माध्यम से उन्होंने हाशिये पर पड़े हुए एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा बना दिया जो सदियों से दर-दर की ठोकरें खा रहा था. बाबा साहब आंबेडकर के रास्ते पर चलने वाले रचनाकारों के बीच वे इन विमर्शों की सबसे बड़ी पैरोकार रही हैं. सामंती पृष्ठभूमि से आने वाला उनका स्वयं का जीवन जीवटता का एक सशक्त उदाहरण है. एक सामंती पितृसत्तात्मक समाज में पैदा होने वाली लड़की ने आखिर विद्रोह का रास्ता चुना और उसके लिए आजीवन संघर्ष करती रहीं, आज तक उनके जीवन का यही पाथेय रहा. यहाँ हमने कविता में उनके अवदान और ‘प्रकृति युद्धरत है’ से संदर्भित कविताओं की विवेचना प्रस्तुत की है.
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रस सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र का बहुत ही प्राचीनतम सिद्धांत है परन्तु इसे व्यापक स्तर पर प्रतिष्ठा बाद में प्राप्त हुई। यही कारण रहा कि अलंकार सिद्धांत जो रस सिद्धांत से बाद में आया लेकिन रस सिद्धांत से प्राचीन माना जाने लगा। रस के स्वरूप पर मुख्य रूप से भरतमुनि, अभिनव गुप्त, मम्मट और विश्वनाथ जैसे आचार्यों ने प्रकाश डाला है। रस सिद्धांत के मूल प्रवर्तक लगभग 200 ई॰पू॰ आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं।
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प्रकृति की श्रेष्ठ कृति मनुष्य को माना गया है । सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर की बनाई श्रेष्ठ कृति प्रकृति के प्रति अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मनुष्य ने काव्य को अपना माध्यम बनाया । काव्य मनुष्य के भीतर की संवदेनाओं को जागृत करने का कार्य करता है । काव्य का हिन्दी साहित्य में तथा हिन्दी काव्य के क्षेत्र में ग़ज़ल विधा का अपना विशिष्ट स्थान है । हिन्दी ग़ज़लकारों ने जीवन के विविध पक्षों को उजागर करने में प्रकृति के विभिन्न घटकों को माध्यम बनाया । हिन्दी ग़ज़ल विभिन्न प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से गाँव, समाज, देश तथा विश्व को एकता के सूत्र में बांधने का कार्य करती है । हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति के विविध रूपों को भौगोलिक चेतना के रूप में अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है । हिन्दी ग़ज़ल में प्रकृति के सुन्दर एवं प्रलयकारी दोनों ही पर्यावरणीय रूपों को प्रदर्शित कर भौगोलिक चेतना को दर्शाया गया है । हिंदी ग़ज़ल का महत्त्वपूर्ण पक्ष पर्यावरणीय चेतना भी है । प्रस्तुत शोध आलेख इस विस्तृत परिदृश्य के आधार पर चुनिंदा हिन्दी ग़ज़लों में भौगोलिक चेतना को दो मुख्य तत्त्वों – प्रकृति वर्णन और पर्यावरण प्रदूषण के आधार पर देखने का प्रयास करता है ।
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तरक्क़ी पसंद तहरीक की स्थापना के साथ साहित्य समेत सभी क्षेत्रों में बदलाव के चिह्न दिखलाई पड़ते है।ये चिह्न कौन से थे इनकी पड़ताल की गई है साथ ही इन बिंदुओं पर फैज़ कितने खरे उतरते हैं इसको भी रेखांकित किया गया है। न सिर्फ उर्दू गजल गो बल्कि हिन्दी कवि में यह परिवर्तन कैसे आ रहा था और इनमें क्या समानता थी इसको भी उदाहरण सहित उदघाटित किया गया है।
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दलित तबके में आई जागृति ने उनमें सामाजिक-आर्थिक अन्याय को बनाए रखने वाले वर्ग और व्यवस्था के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित किया है। सामाजिक अन्याय के पक्षधरों और जिम्मेदार लोगों के प्रति दलितों का आक्रोश अब ज्यादा मुखर हो गया है। दलित मानस यातनाओं की आँच में तपा-झुलसा है अतः आक्रोश व प्रतिशोध के भाव अब इन कविताओं में आने लगे हैं।
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