हिन्दी कविता की परम्परा में ग़ज़ल

डा. जियाउर रहमान जाफरी

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सारांश

गजल हिंदी की बेहद लोकप्रिय विधा है. यह जब उर्दू से हिंदी में आई तो इसने अपना अलग लहजा अख्तियार किया. उर्दू का यह प्रेम काव्य हिंदी में जन समस्याओं से जुड़ गया. ग़ज़ल की परंपरा भले खुसरो कबीर या भारतेंदु होते हुए आगे बढ़ी हो, लेकिन ग़ज़ल को एक विधा के तौर पर स्थापित करने का काम दुष्यंत ने किया. आलोचना के स्तर पर भी आज ग़ज़ल को स्वीकारा जा रहा है. हिंदी के कई गजलगो दुष्यंत के बाद की इस परंपरा को संभाले हुए हैं.

बीज शब्द: ग़ज़ल, छांदसिकता, नुमाइंदगी, सत्ता, बगावत, विषमता, तकनीक, संगीतात्मकता, लयात्मकता, शिल्प, परिवेश.

आमुख

हिंदी साहित्य की विधाओं में कविता की परंपरा सबसे प्राचीन है. मनुष्य ने जब से बोलना शुरू किया था तब से गुनगुनाने की भी प्रवृति जागृत हुई और इसी गुनगुनाहट के रास्ते से कविता का जन्म हुआ. हिंदी साहित्य का एक तिहाई इतिहास कविता की परंपरा से भरा हुआ है. हर दौर में सबसे ज्यादा संख्या में कविताएं लिखी गईं. उसकी वजह यह थी कि कविता का असर जनसामान्य पर ज्यादा होता था. वीरगाथा कालीन कवि राजा की प्रशस्ति के लिए सबसे प्रभावोत्पादक माध्यम कविता ही समझते थे.

किसी भी रचना का कविता होने के साथ ही यह लाजिम हो जाता है कि उसके प्रस्तुतीकरण, उसके स्वभाव के अनुकूल हो उसमें छांदसिकता, गीतात्मकता प्रवाह,लयऔर छंदशास्त्र का पालन किया गया हो. रहीम कबीर और वृंद के दोहे इसलिए प्रसिद्ध हुए के इसमें छंद का निर्वाह किया गया था साथ थी उसमें ज्ञान उपदेश और जीवन गुजारने के तौर तरीके को भी समझाया गया था.

कालांतर में खासकर छायावाद के समय से कविता को छंद मुक्त करने की प्रवृत्ति चली. निराला ने जूही की कली में यह प्रयोग किया यह अलग बात है कि सरस्वती पत्रिका ने इस कविता को वापस कर दिया था. इसे वापस करने के पीछे उसका प्रस्तुतीकरण तो था ही सुधारवादी दौर की यह कविता रीतीकालीन घोर श्रृंगारिकता की तरफ वापस जा रही थी. छायावाद में छंद मुक्त और छंद युक्त दोनों प्रकार की कविताएं लिखी गईं. छायावाद के बाद प्रयोगवाद का दौर शुरू हुआ. फिर प्रयोगवाद नई कविता का जामा पहनकर प्रबुद्ध जनों की ओर पहुंच गई.अज्ञेय ने तार सप्तक का प्रकाशन किया और यह वह दौर था जहां कविताएं छंद से पूरी तरह आजाद हो गई थी इसे नई कविता का नाम दिया गया.

कविता जबसे छंद से दूर हुई वह आम जनों से कट गई थी. साधारण लोगों को इससे ने कविता का स्वाद मिलता था और ने उसकी भाषा और शैली समझ आती थी. प्रगतिवाद में जिस मजदूर की बात की जा रही थी वह कविता मजदूरों को समझ ही नहीं आ रही थी. ऐसा भी नहीं था कि मुक्त छंद की कविताएं छंद से बिल्कुल मुक्त थीं लेकिन उसमें छांदसिकता का कोई नियम नहीं था. जो नियम दोहे चौपाई, गीत, या गजलों में दिखलाई देते हैं. समकालीन हिंदी कविता ने माना के बातें महत्वपूर्ण है छंद द्वितीय चीज है. छंद के बंधन से अभिव्यक्ति में बंदिशआती है इसलिए इस कालखंड में जो कविताएं लिखी गईं वह किसी नियम कायदे से शुरू नहीं होती थी अगर तुक मिल गया तो ठीक है अगर नहीं भी है तो वह कविता है क्योंकि उसमें रस की प्राप्ति हो रही है. इस संदर्भ में समकालीन हिंदी कविता के कुछ महत्वपूर्ण हस्ताक्षर की पंक्तियां देखी जा सकती हैं –

आँखें मुंद गईं

सरलता का आकाश था

जैसे त्रिलोचन की रचनाएं

नींद ही इच्छाएं

-शमशेर

मत ब्याहना उस देश में

जहां आदमी से ज़्यादा

ईश्वर बसते हों

-निर्मला पुतुल

तुम्हारी देह से छूटा हुआ

पहला बच्चा

रो रहा था तुम्हारी देह के किनारे

और तुम्हारी छाती से

दूध नहीं छूट रही थी

-अरुण कमल

माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है

पानी गिर नहीं रहा

पर गिर सकता है किसी भी समय

-केदारनाथ सिंह

आजकल कबीरदास जख्म

शहर और आदमी नींव के पत्थर

-कुंवर नारायण

जाहिर है यह कविताएं कविता होने के बावजूद अपने समय की नुमाइंदगी तो कर रही थी. पर कवि जिस तौर से अपने को अभिव्यक्त कर रहे थे पाठक वर्ग उस रूप में उसे अख्तियार नहीं कर पा रहा था. कविता एक तरह से आम लोगों से कट गई थी. यह पढ़े-लिखे प्रबुद्ध वर्ग तक सीमित गई थी. कबीर के सीधे-सादे दोहे समझने वाली जनता नए कवि की इस कविता को नहीं समझ पा रही थी कि कवि क्या कहना चाह रहा है.

ऐसे ही नाजुक वक्त के नब्ज़ को दुष्यंत ने टटोला, और गजल के साथ उन्होंने एक प्रकार से छंद की वापसी की. पाठकों ने समझा कि ग़ज़ल ही वह माध्यम है जिसमें मेरी बात मेरी ही जुबान में कही जा रही है. दुष्यंत के सिर्फ एक संकलन साये में धूप ने ग़ज़ल का वह माहौल पैदा किया के समकालीन अन्य कविताओं की प्रवृतियां वह असर पैदा नहीं कर सकीं. दुष्यंत ने नई कविता, गीत और हिंदी कहानी से गजल में पदार्पण किया था. उन्होंने महसूस किया कि ग़ज़ल के लहजे में ही हिंदी कविता की वापसी हो सकती है. उन्होंने जो शेर लिखे वह तमाम लोगों के दर्द की कहानियां कह रहे थे. लोगों को लग रहा था ये भले दुष्यंत के शेर हों बातें तो उनकी ही है. उनका शेर सत्ता से बगावत कर रहा था वह भी यहां तक के पंडित नेहरू को भी इसकी नोटिस लेनी पड़ी. दुष्यंत के कुछ ऐसे शेर देखे जा सकते हैं जो आपने दौर के नाजुक लम्हों को पूरी जिम्मेवारी से रखते हैं-

कैसे मशाल ले के चले तीरगी में आप

जो रोशनी थी वह भी सलामत नहीं रही

यह ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

जिंदगी है कि जी नहीं जाती

अब नई तहज़ीब के पेशे नज़र हम

आदमी को भूनकर खाने लगे हैं

पक गई है आदतें बातों से सर होगी नहीं

कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं

समकालीन कविता जो एक समय अपनी भाषा शैली, असहजता और अतिशयोक्ति के कारण समाज से कट गई थी. उस वातावरण में गजल ने अपने खूबसूरत लहजे में हर सामाजिक शोषण और विषमता के खिलाफ अपनी उपस्थिति दर्ज की. गजल में प्रेम की भी बात थी और प्रकृति की भी प्रेम और प्रकृति छायावाद की कविताओं में भी था, लेकिन छायावादी कवि मिट्टी से जुड़े हुए नहीं थे इसलिए दिनकर ने भी छायावाद के खिलाफ स्वच्छंदतावाद की बुनियाद रखी और मिट्टी की ओर लौटने का आग्रह किया.ग़ज़ल अपने लबो लहजा अपनी तकनीक अपने मुहावरे, कहन और गीतात्मकता के कारण पाठकों की पसंद बन गई. उर्दू गजल में जिस प्रेम का जिक्र था हिंदी गजल में आकर वह मानव प्रेम में बदल गया.यही वजह है कि भारतेन्दु भी इसे नजरअंदाज नहीं कर सके और उन्होंने ग़ज़ल शैली में कई रचनाएं लिखी . हिंदी गजल मधुचर्या से दूर थी. वहां जो प्रेम था उसमें पाकीज़गी थी प्रयोगवादी कविता की तरह वहां रक्त खोला देने वाला चुंबन नहीं था वह यह नहीं कहती थी कि-

काम है अभिशप्त

तुम कहां हो नारि

बल्कि वह प्रेम में पर्दे की हिमायती थी. गजल की फितरत ही है कि वह पूरी खुल नहीं पाती. वह इशारों में बात करती है. इसलिए वह अपने प्रेम का बयान बस इतना कह कर कर देता था कि

कोई भी ख़त हो लेकिन मुख़्तसर अच्छा नहीं लगता

लिफाफे में महल तितली का पर अच्छा नहीं लगता

मेरी चाहत पर शक करते हुए यह भी नहीं सोचा

तुम्हारे पास क्यों आते अगर अच्छा नहीं लगता

हिंदी कविता से अलग ग़ज़ल की यह विशेषता थी कि उसका हर शेर अपने आप में पूर्ण होता था एक शेर को समझने के लिए दूसरे शेर को पढ़ने की कतई जरूरत नहीं थी पर कविता की स्थिति थोड़ी भिन्न है. बिना पूरी कविता पढ़े इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन होता है कि कवि क्या कहना चाह रहा है? गजल का सौंदर्य, उसका लचीलापन, भाव भंगिमा, संगीतात्मकता और प्रवाह ने इसे एक कविता की जरूरी विधा के तौर पर स्थापित कर दिया. आलोचक गजल को कविता मानने से इनकार करते रहे, पर पाठकों की स्वीकृति उसे मिलती रही. आज स्थिति यह है कि कविता का मतलब ही ग़ज़ल समझा जाने लगा है, और ग़ज़ल का मतलब दुष्यंत कुमार हैं जैसा के नचिकेता ने भी लिखा है दुष्यंत की ग़ज़लें आज हमें बेचैन और प्रेरित करती हैं.1

गजल के साथ कविता छंद के रूप में वापस होती है गीत दोहे भी छान्दसिक विधा हैं लेकिन इसकी अपनी सीमाएं हैं. गीत का मर्म बिना सुर ताल के समझ नहीं आता. दोहा का लहजा उपदेश और नीतिपरक है, लेकिन हिंदी गजल की अपनी क्षमता है इसका शरीयत हमें मुतासिर करता है. ग़ज़ल हर सुख दुख को हर्ष विषाद को आशा आकांक्षा को अपना विषय बनाती है. आर पी शर्मा महर्षि के अनुसार गजल समसामयिक जीवन उपयोगी तथा अपनी धरती और परिवेश से जुड़ी हुई है.2 हम कह सकते हैं कि हिंदी गजल जिस सामाजिक चिंता से गुजरती है वह उसे दीर्घ जीवी बनाती है. किसी भी कविता का जनजीवन का सरोकार जितना गहरा होता है वह रचना उतनी प्रभावी होती है. ग़ज़ल के बारे में डॉक्टर इंद्रनाथ सिंह का मानना है छांदसिकता, गीतात्मकता आदि कारकों के साथ जीवन के सभी पक्षों को सहजता के साथ अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता ने ही हिंदी कविता में ग़जल के मार्ग को सुगम किया.3 असल में ग़ज़ल लिखना इतना सरल भी नहीं है उसका अपना ढांचा है, और अगर वह प्रभावित न कर सके तो ग़ज़ल भी नहीं है. डॉक्टर नरेश ने ग़ज़ल को एक कष्ट साध्य विधा माना है.4 ग़ज़ल का अपना एक शिल्प है, और उस शिल्प में ही ग़ज़ल ग़ज़ल बनती है हिंदी कविता में ग़ज़ल ने अपने तौर तरीके से ही लोगों को प्रभावित किया है. डॉक्टर सरदार मुजावर का विचार है कि नई कविता की छंदमुक्तता, गद्यमयता और सपाट बयानी से निजात दिलाने का काम गजल ने किया.5 वास्तव में हिंदी कविता में गजल वह काव्य विधा है जिसमें सबसे पहले युगीन परिवेश और सामाजिक जीवन का यथार्थ साक्षात्कार हुआ. अनिरुद्ध सिन्हा ने लिखा है कि ग़ज़ल मनुष्यता को केंद्र में रखकर सामने आती है.6

ग़ज़ल ने हर तरह से एक लंबा सफर तय किया है. वह अमीर खुसरो, कबीर भारतेंदु और दुष्यंत होते हुए विनय मिश्र तक पहुंची है. उसने हर हालात का जायजा लिया है. ग़ज़ल कभी बादशाहों की महफिलों में रही फिर नवाबों और रईसों तक पहुंची, लेकिन यह ग़ज़ल जब भी हिंदी में आई तो वो दरबार से निकलकर घर बार तक पहुंच गई. यही कारण है कि चानन गोविंदपुरी को कहना पड़ा कि गजल वह जानदार बूटा है जो हर प्रकार की जमीन में उगने और हर मौसम में विकसित होने का सामर्थ्य रखता है.7

आज हिंदी गजल आंदोलन के रूप में ख़डी है. हिंदी में अच्छी ग़ज़लें लिखी जा रही हैं जिसमें शिल्पगत सौंदर्य भी है, और भावगत सौंदर्य भी. हिंदी के कई गज़लगो हैं जिन्होंने दुष्यंत की परंपरा को सलीके से संभाल रखा है. समकालीन हिंदी के समृद्ध ग़ज़लकारों में जहीर कुरैशी, विनय मिश्र विज्ञान व्रत, राजेश रेड्डी, रामकुमार कृषक, मधुवेश आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं.

हिंदी कविता में ग़ज़ल आज अपनी ताकत, संप्रेषण कौशल, प्रस्तुतीकरण और गहराई के कारण फल फूल रही है. हर आदमी ग़ज़ल का दीवाना है ग़ज़ल के हर शेर में उन्हें अपनी आवाज सुनाई देती है. हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों के शेर भी इस संदर्भ में देखे जा सकते हैं-

जीने की मुश्किल राहों में रफ्तार से होकर गुजरेंगे

उस पार उतरना है जिनको मंझधार से होकर गुजरेंगे8

-विनय मिश्र

जब जब जोड़ लगाता हूं

अक्सर खुद घट जाता हूं9

-विज्ञान व्रत

बरखा की स्याह रात में उम्मीद की तरह

निर्भीक जुगनू ओं का चमकना भी देखिए

ज़हीर कुरैशी

इस जहां से जंग की कब रात काली जाएगी

भूख से घबरा के क्या बारूद खा ली जाएगी

– किशन तिवारी

पहले जैसी बात कहां इन बेमौसम की फसलों में

ख्वाबों की भरमार ने मिट्टी का सौंधापन छीन लिया

-एम. एफ़ नज़र

आज अपने हैं वही दूर भी हो सकते हैं

ख्वाब इन आंखों के बेनूर भी हो सकते हैं

रामबाबू रस्तोगी

कब कहां किसी की भी अर्ज़ियां समझती हैं

बिजलियां गिराना बस बिजलियां समझती हैं

रामनाथ बेखबर

मैं इस समय के मौन को पढ़ता गया हूं

सूक्ष्म से संवाद भी करता गया हूं

मांगन मिश्र मार्तंड

मिलेगा न्याय कैसे तुम बताओ

सबूतों को मिटाया जा रहा है

जगदीश तिवारी

जिंदगी में यह काम कर देना

तुम किसी सिर पर हाथ रख देना10

भानु मित्र

झुलसा हुआ है धूप में हर आदमी यहां

आखिर नई वह चांदनी तानी कहां गई

मधुवेश

निष्कर्ष – कहना न होगा कि अपनी इसी विशेषताओं के कारण हिंदी कविता में ग़ज़ल अपना स्थान बनाए हुए है.इसका लबो लहजा, अंदाज़ प्रस्तुतीकरण, मुहावरा, और बुनियादी ढांचा इसे सबसे अलग और सबसे पुर असर बनाती है.

संदर्भ

  1. नचिकेता वर्ष 2014, अष्टछाप पृष्ठ 8, फोनिम पब्लिकेशन दिल्ली 53
  2. आरपी शर्मा महर्षि, वर्ष 2005, ग़ज़ल लेखन कला, पृष्ठ 15, मीनाक्षी प्रकाशन दिल्ली 92
  3. इंद्रनारायण सिंह, वर्ष 2007, हिंदी ग़ज़ल शिल्प एवं कला, पृष्ठ 112, रोहतास जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन बिहार
  4. डॉ नरेश, वर्ष 2004, हिंदी गजल दशा और दिशा पृष्ठ 85, वाणी प्रकाशन दिल्ली 2
  5. सरदार मुजावर, वर्ष 2007, हिंदी की छायावादी गजल, वाणी प्रकाशन दिल्ली2
  6. अनिरुद्ध सिन्हा वर्ष 2009 हिंदी ग़ज़ल का सौंदर्यात्मक विश्लेषण, पृष्ठ 20, जवाहर पब्लिकेशर्स नई दिल्ली 16
  7. चानन गोविंदपुरी, वर्ष 1996, व ग़ज़ल एक अध्ययन पृष्ठ 49, सीमांत प्रकाशन नई दिल्ली 2
  8. ककसाड, अक्टूबर 2020, पृष्ठ 28 पटपड़गंज दिल्ली 92
  9. विज्ञान व्रत, 2018, जैसे कोई लौटेगा पृष्ठ 76 अयन प्रकाशन नई दिल्ली
  10. भानु मित्र, वर्ष 2017, गजल ग्रंथ पृष्ठ 195 त्रिवेणी पब्लिकेशन जोधपुर
  11. दुष्यंत कुमार वर्ष 2014 साए में धूप पृष्ठ18 राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली

 

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