“स्त्री मुक्ति का भारतीय और पाश्चात्य संदर्भ”

मनीश कुमार शुक्ला

स्वतंत्रता प्राप्त हुए लगभग छियासठ वर्ष बीत चुके हैं, किन्तु आज भी टी.वी. खोलते ही प्रत्येक चैनल स्त्रियों के साथ हो रहे, अत्याचारों मुख्यतः अपहरण और बलात्कारों के समाचारों से पटा पड़ा होता है। तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले भारतीय समाज का वीभत्य और घिनौना चेहरा हर भरतीय का मुँह चिढ़ाने लगता है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि स्त्री की ही कोख से इस दृष्टि में आने की राह पाने वाला पुरुष सामथ्र्यवान होते ही स्त्री की अस्मिता लूटने को तत्पर क्यों हो जाता है? क्यों कन्या भू्रण हत्या की ओर अग्रसर हो स्त्री ही के जन्म लेने में बाधा उत्पन्न करता है? क्या पितृसत्ता को अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए उसे स्त्री को उसके अधिकारों से वंचित करना आवश्यक है? क्या उसके लिए अमानवीयता की हद तक जाना जरूरी है? पुरुष ही के समान हाड़-मांस की काया में अवस्थित स्त्री क्या सदैव पुरुष से तिरस्कार, धिक्कार, शोषण और उत्पीड़न ही प्राप्त करती रहेगी? करूँ यह सचमुच कभी ‘यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ में आस्था रखने वाला देख रहा है? फिर क्या कारण है कि पुरुष की जन्मदात्री, उसके पोषण और उन्नयन का आधार स्त्री जो एक समय में देवत्व की खान समझी जाती थी, आज दोयम दर्जे की प्राणी में तब्दील हो गई।

यह सर्वविदित है कि स्त्री की उन्नति अथवा अवनति किसी भी सभ्यता अथवा युग का मापदंड है।[1] भारतीय संस्कृति में स्त्री को पुरुष की वामंगी कहा गया है।[2] शिव की अर्द्धनारीश्वर के रूप में परिकल्पना उनके परस्पर अद्धैत भाव की ही सूचक है। ऋग्वेद में शची स्वय को ज्ञान में अग्रणी एवं उच्च कोटि की वक्ता तथा पति द्वारा अनुकरणीय बताती है।[3] सूर्या, मैत्रेयी, मदालसा, भारतीय आदि मंत्रस्रष्टा नारियों का वैदिक साहित्य सृजन में योगदान हो अथवा उर्वशी, रोयशा, अपाला, विश्वतारा, सिकता, घोषा, लोपा आदि विदुषियों की अध्ययन एवं सृजन के क्षेत्र में प्रसिद्धि हो अथवा वीरांगनाओं का युद्ध क्षेत्र में पुरुष को दिया गया सहयोग हो, स्त्री की बहुआयामी शक्ति से परिचित कराने के लिए ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। पतिव्रत्य का आदर्श सावित्री, सीता और दुर्गा जैसी वीरांगनाएं और तार्किकता की मिसाल द्रौपदी सभी इसी भारतभूमि पर ही जन्मी थीं; किन्तु सूत्रों और स्मृतियों के काल तक आते-आते स्त्रियों पर अनेकानेक अंकुश लगाकर उनकी राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और वैयक्तिक स्वतंत्रता को बाधित किया गया। जन्म से मृत्यु पर्यन्त उसे पुरुष के नियंत्रण में रखने के लिए निर्देशित किया गया।

महाभारत काल में कन्याओं का माता-पिता के घर पर बहुविध शिक्षा दी जाती थी किन्तु स्त्री-स्वातंत्रय भी कितनी और कैसी सीमाओं से घिरा था, रामायण और महाभारत में चित्रित द्रौपदी, कुंती, सीता कैकेयी आदि स्त्रियां इसे स्पष्टतः दर्शाती हैं। पौराणिक काल में एक ओर स्त्री शक्ति स्वरूपा मानी गयी तो दूसरी ओर सती कुप्रथा भी प्रचलित हुई। स्मृतियों में स्त्री के लिए यज्ञ, वेद अध्ययन आदि पर प्रतिबंध लगाए गए बौद्ध युग में गौतम बुद्ध द्वारा स्थापित भिक्षुणी संघ अवश्य ही समाज में स्त्री को सम्मानजनक स्थान दिलाने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है किन्तु मौर्य-शुंग काल पुनः दहेज प्रथा, बहु-विवाह प्रथा, नियोग एवं तलाक प्रथा आदि द्वारा स्त्री की स्वतंत्राता को आघातित करता दिखाई देता है। शक-कुषाण काल में स्त्रियों की सामाजिक दशा में और अधिक गिरावट देखी जा सकती है। गुप्त काल में अवश्य ही स्त्री-शिक्षा की ओर अधिक ध्यान दिया गया तथा स्त्री के सामाजिक सम्मान में वृद्धि हुई। हर्ष काल में जिसमें वृद्धि हुई किन्तु वेश्यावृत्ति, देवदासी प्रथा, बाल-विवाह आदि सामाजिक कुरीतियाँ जस की तस बनी रहीं। राजपूत काल में अनेकों उदाहरण ऐसे मिल जाऐंगे जहाँ स्त्री ने अपनी सूझ-बूझ अथवा पराक्रम से शत्रु के छक्के छुड़ाए हों किन्तु वास्तविकता यह है कि इसके बावजूद उसे पुरुष के समकक्ष नहीं माना गया। मध्यकाल में स्त्री की दुर्गति अपने चरम पर पहुँच गई। मुगल शासकों की विलासी दृष्टि में स्त्री भाग मनोरंजन का साधन बन कर रह गई थी। स्त्री की दुर्दशा देख मध्यकालीन संतों के हृदय द्रवित हुए। रामानंद, गुरुनानक, कबीर, चैतन्य, रैदास, मीरा आदि के काव्य में उनके स्त्री विषयक सरोकार के दर्शन होते हैं।

आधुनिक काल में, अंग्रेजों के शासनकाल में राजाराममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, एम.जी. रानाडे, महर्षि कर्वे, ज्योतिबा फुले, दयानंद सरस्वती आदि समाज सुधारकों ने समाज में स्त्री की असमान स्थिति को सुधारने के अथक प्रयास किए। राष्ट्रीय कांग्रेस के समय भारतीय स्त्री का राजनीति में पदार्पण हुआ, परिणामस्वरूप कमला नेहरू, बहन सत्यवती, सरोजनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय, मनीबेन पटेल, स्वरूपरानी, अमृतकौर, अरूणा आसफ अली, सुचेताकृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित तथा अन्य अनेक स्त्रियों ने इस क्षेत्र में अपना योगदान दिया। महात्मा गांधी ने भी स्त्रियों में नवचेतना पैदा की और सभी स्त्रियों को स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान देने के लिए प्रेरित किया। उनके आह्वान पर लाखों स्त्रियों ने स्वाधीनता संग्राम में अपनी सक्रिय भागीदारी से संपूर्ण विश्व समुदाय को दांतों तले अंगुली दबाने पर विवश कर दिया।[4]

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् स्त्री को अपनी वास्तविक स्थिति का सही-सही ज्ञान हुआ। आजादी के लिए पीठ पर लाठी और सीने पर गोली तो पुरुष के साथ स्त्री ने भी खाई थी किन्तु सत्ता का सिंहासन आया पुरुष के हाथ में। स्त्री के हाथ बेलन देकर उसे पुनः रसोईघर में व्यंजन पकाने के लिए भेज दिया गया। संविधान में स्त्री-पुष समानता के नियम बनाए गए किन्तु उन नियमों को लागू करने वाला भी तो पितृसत्तात्मक समाज का पुरुष ही था। स्त्री पुनः स्त्री होने के कारण छली गई, पुनः अपने अधिकार से वंचित हुई।

यह वह समय था जब पश्चिम में ‘विेमन लिब’ की शुरूआत हुई थी। 1946 में फ्रांसीसी भाषा में छपी सिमोन द बउवार की पुस्तक ‘द सेकंड सेक्स’ में लेखिका ने यह स्पष्ट किया कि समाज में स्त्री की स्थिति मबवदक (दोयम) है थ्पतेज नहीं। इसके उत्पीड़न का कारण जेंडर है; सेक्स को जेंडर से अलग समझना चाहिए। इस पुस्तक में उसने जब यह स्थापना की कि स्त्री पैदा नहीं होती बनाई जाती है (One is not born but rather becomes a women)अर्थात् समाज स्त्री को स्त्री बनाता है, उसके स्त्री के रूप में रहने का वातावरण तैयार करता है। बउवार ने कहा कि हम स्त्री हों या पुरुष, मानव के रूप में ही स्वीकारे जाएं – तब पश्चिमी स्त्रियों ने अत्यंत गंभीरतापूर्वक अपने अस्तित्व के बारे में पुनर्विचार करना शुरू किया। तदुपरांत केट मिलेट की ’सैक्सुअल पॉलिटिक्स’ (Sexual Politics), फायरस्टोन की ‘दि डायलेटिक्टक्स ऑफ़ सेक्स’ (The dialectics of Sex) कैथनीन एम. रोजर की ’थिंकिंग एबाउट विमेन’ (Thinking About Women) जर्मन ग्रीअर द फीमेल यूनक (The Female Eunek) बेट्टी फ्रीडन की ‘द फेमिनिन मिस्टिक’ (THe Feminine Mystique) नाओमी वुल्फ की ‘फायर विद फायर’ (Fire with Fire) और ‘द ब्यूटी मिथ’ (The Beatuy Myth) आदि पुस्तकों के प्रकाशन से नारीवादी आंदोलन के विविध रूप दृष्टिगोचर हुए।

कैट मिलेट ने सेक्सुअल पॉलिटिक्स में परिवार को स्त्री के लिए कारागार बताया और यौन शोषण, प्रजनन आदि पर अपने विचार प्रकट किए। अपने माता-पिता को देखकर ही बच्चे अपने-अपने लिंग के आधार पर अपनी भूमिका, स्वभाव और अपने स्थान या पाठ पढ़ा करते हैं। इसके बाद फिर अपने पास-पड़ोस, स्कूलों तथा अन्य क्षेत्रों के जरिए परिवार से प्राप्त शिक्षाओं के अपने हृदय में उतारते जाते हैं।[5]

सुलोमिथ फायरस्टोन ने ज्ीम क्पंसमबजपबे व िैमग में पितृसत्ता के प्रसार तथा स्त्री का उसके अधिकारों से वंचित होते जाने का कारण प्रजजन माना। महिलाओं के उत्पीड़न की आत्मा उनके द्वारा बच्चे पैदा करने तथा बच्चों के लालन-पालन में निहित है।

जर्मन ग्रीअर ने The Dialectics of Sex ने कहा कि “इस प्रकार का व्यवहार (दुव्यर्वहार) स्त्रियों के साथ इसलिए होता है क्योंकि वे अपनी जिन्दगी, अपनी आकृति, अपनी प्रकृति के बारे में और पुरुषों द्वारा किए गए अत्याचारों को सहते हुए चुप रहती है।” [6]

बेट्टी फ्रीडन ने The Feminine Mystique में यह सिद्ध किया कि पुरुष स्त्री को अपनी संपत्ति मानता हे। स्त्री को योग्य बनाने के साथ-साथ केवल मां पत्नी गृहिणी की भूमिका स्वीकार करने के लिए, बाध्य किया जाता रहा है। फायरस्टोन ने ‘The Dialectics of Sex’ प्रसव की तुलना कद्दू के मल प्रवाह (Shitting a Pumpkin) से की[7] ‘Fire with Fire’ में शक्ति आधारित स्त्रीवाद, (Power Based, Feminism) की चर्चा करते हुए स्त्रियों को अपनी वोट (मत) और पोस्ट (पद) की शक्ति पहचान कर वह सब प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया जो उन्हें पर्याप्त नहीं मिल रहा किन्तु पुरुष को अपना शत्रु समझ कर अथवा उसे नीचा दिखाकर नहीं, अपितु अपनी शक्ति को पहचानकर स्त्री की शक्ति भी होगी और मुक्ति भी।[8] नाओमी वुल्फ का उपर्युक्त दृष्टिकोण अधिक संतुलित, परिपक्व एवं व्यवहारिक जान पड़ता है। स्वातंत्र्योत्तरकाल में स्त्री अस्मिता से जुड़े ऐसे सवालों को उठाने वाली अन्य अनेक महिला लेखिकाओं ने भी अपनी रचनाओं में स्त्री को अपनी अस्मिता और अधिकारों से जुड़ी दायित्व भावना का बोध कराया। ऊषा देवी मित्रा, दिनेश नंदिनी डालमिया, शशिप्रभा शास्त्री शिवानी, कृष्णा सोबती, दीप्ति खंडेलवाल, मन्नू भंडारी, ऊषा प्रियवंदा, राजी सेठ, मंजुला भगत, मृदुला गर्ग, चंद्रकांता कुसुम कुमार, ममता कालिया, मेहरून्निसा परवेज, चित्रा मुदगल, भारती, सूर्यबाला, मृणाल पांडेय, कमल कुमार, नासिरा शर्मा, निरूपमा सैवती, चित्रा चतुर्वेदी, प्रभा खेतान, रमा सिंह, कृष्णा अग्निहोत्री, मैत्रेयी पुष्पा, नमिता सिंह, वीणा सिन्हा, गीतांजलि श्री लवलीन, मुक्ता, मधु कांकरिया, जया जादवानी, अल्का सरावगी, अनामिका, नीरजा माधव, उर्मिला सिरी, रजनी गुप्त, नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र आदि महिला कथाकारों ने महिला लेखन के मोर्चे को संभाला और अपने-अपने सामथ्र्यानुसार इस यज्ञ में आहुति दी, यह सिलसिला आज भी जारी है।

नाम . मनीष कुमार शुक्ल (शोधार्थी)

संस्था .हिमालयन यूनीवर्सिटीए जुलांग गाँवए ए इटानगर, पंपूपर . 791111ए अरुनाञ्चल प्रदेश

मोबाइल न . 8750785799 ; (manishon1987@gmail.com)

  1. जॉन स्टुअर्टमिल, स्त्रियों की पराधीनताख् अनु. प्रगति सक्सेना, पृ. 52, राजकमल प्रकशन, दिल्ली

  2. निवेश्य वाम भुजमासनार्धे तत्सन्निवेशदधिकोन्नतांसः, कालिदास, रघुवंश 6/11
  3. अहं केतुरहं मूर्धाडहमुग्रा विवाचिनी मयेदपनुक्रत पतिः सेहानाया उपाचरेत ऋग्वेद 10/159/2
  4. मनु 9.3 पिता रक्षति कौमारे भत्र्तारक्षितयौवने रक्षतिस्थविरे पुत्रान स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति।
  5. उद्धृत, ‘नारी प्रश्न’, सरला मोहश्वरी, पृ. 47, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली 1998
  6. वही, पृ. 48
  7. ‘At best necessary and tolesatle at worst like shitting a pumpkin’ – The Dialectics of Sex, Fire stores, p. 83
  8. नाओमी वुल्फ फायर विद फायर, संपा. राजेन्द्र यादव, प्रभा खेतान, पितृ सत्ता के नए रूप, पृ. 117

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