रंगमंच के इतिहास को देखने पर यही मिलता है कि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल के शुरुआती कुछ वर्षों तक स्त्रियों की भूमिका भी स्वयं पुरुष ही करते थे। जबकि भारत देश में हमेशा से ही विदुषी महिलाएं होती रही हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में अपना परचम लहरा रही थी। लेकिन यह विचारणीय प्रश्न है कि इतनी उन्नति परम्परा के रहते हुए भी रंगमंच में स्त्रियों की भूमिका पुरुष ही क्यों करते थे ? वैदिक काल से ही प्रत्येक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली स्त्रियों को मंचन के क्षेत्र में प्रवेश मिलने में इतना संघर्ष क्यों करना पड़ा ?
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इक्कीसवीं सदी की हिंदी कहानियों में स्त्री की बदलती सामाजिक छवि
वर्तमान हिंदी कहानी स्त्री के सशक्त होते तमाम रूपों को उद्घाटित करती है जिनका अध्ययन करने से स्वतः सिद्ध हो जाता है कि- स्त्री अब स्वयं को अबला नहीं सबला के रूप में स्थापित करती है। वे अपनी अन्तः-बाह्य स्थितियों पर चिंतन-मनन करती हुई अपने लिए एक नयी राह के अन्वेषण में लगी है।