वर्तमान बेरोजगारी का नया कलेवर और अन्वेषण उपन्यास की प्रासंगिकता

पूजा मदान(पीएच.डी. शोधार्थी)

प्रो. आलोक गुप्त (शोध निर्देशक)

हिन्दी अध्ययन केंद्र

गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय

मो. 7428524687

ईमेल- poojamadan91@gmail.com

सारांश

प्रस्तुत शोध आलेख बेरोजगारी पर केन्द्रित है। बेरोजगारी जिससे आज का हर युवा जूझ रहा है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद भी युवाओं को वह मुकाम नहीं मिल रहा जिसके वे हकदार है। समाज और शासन व्यवस्था से उनका संघर्ष निरंतर जारी है। बेरोजगारी की पीड़ा एक ओर उनके भविष्य को गर्त में धकेल रही है तो दूसरी तरफ उनके स्वाभिमान पर भी प्रहार कर रही है। शैक्षिक संस्थानों से लेकर रोजगार कार्यालयों तक में भ्रष्टाचार के विषाणु इस कदर बढ़ गए हैं कि आम व्यक्ति कठिन परिश्रम के बावजूद भी असफल है। यह आलेख बेरोजगारी से उत्पन्न युवाओं की आंतरिक और बाह्य प्रकृति दोनों को उद्घाटित करता है।

बीज शब्द

बेरोजगारी, स्वाभिमान, शिक्षा, व्यवस्था, भ्रष्टाचार और हिंसा।

शोध आलेख

“एक बात बताओं, हमारे जो इतने साल बर्बाद हुए, उसे कौन वापस करेगा? इन वर्षों में हमने जिंदगी नहीं जाना। हमने नहीं जाना कि सुख क्या होता है? हमने नहीं जाना सुकून क्या है। उस समय को फिर से कोई वापस देगा? वे दिन जब हम अपने आदमी होने को सबसे ज्यादा शिद्दत से महसूस कर सकते थे। लोगों के सामने उसे सिद्ध कर सकते थे- वे बेमतलब के बीत गए। वह वक्त हमें फिर मिल सकता है? यदि ब्रह्मा या यमराज जो भी हों,-कहे हमारी उम्र दस वर्ष बढ़ गयी तो भी बात बन नहीं सकती। हमारे खराब हुए यौवन के वर्ष हैं, दान दिए वर्ष तब के होंगे जब कोई मृत्यु का इंतजार करता है, जिंदगी का नहीं।”1

‘अन्वेषण’ उपन्यास में कही यह बात आज के प्रत्येक युवा मन के भीतर लगातार कौंध रही है। चाहे वह तीस की उम्र पार कर चुका कोई युवक हो या अट्ठाइस की दहलीज पर खड़ी अपने सौन्दर्य को पीछे छोड़ती एक लड़की। गाँव की पगडंडियों को पार कर पक्की सड़क पर चलने का जो अदम्य साहस इस वर्ग ने दिखाया है तथा अपने पुरखों द्वारा किये संघर्ष को सम्मान में परिवर्तित करने का जो संकल्प इन्होंने लिया है क्या वह सब देखते ही देखते धराशायी हो जायेगा? क्या पितृसत्तात्मकता को चुनौती देकर उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुंची लड़कियां घर की देहरी में फिर से कैद हो जाएंगी? दिन-रात प्रतिरोध को उकेरती उनकी धारदार कलम वक्त की मार से अवरुद्ध हो जाएगी? क्या उनके सुनहरे सपने किसी भयंकर दिवास्वप्न में तब्दील होकर रह जाएंगे? इस तरह के हजारों प्रश्न है जिनसे आज का युवा वर्ग निरंतर जूझ रहा है। लगातार बढ़ रही बेरोजगारी की दर और आए दिन सरकार द्वारा निजीकरण को महत्त्व देना साफ-साफ बतला रहा है कि वर्तमान युवा वर्ग का भविष्य कहाँ तक सुरक्षित है। बेरोजगारी की यह पीड़ा न सिर्फ युवा वर्ग में आत्मविश्वास की कमी को बढ़ा रही है अपितु पारिवारिक रिश्तों से भी उन्हें कोसों दूर करती जा रही है। रोज खत्म होती मानवीय संवेदनाएँ इस बात की गवाही स्पष्ट रूप से देती प्रतीत हो रही है। युवाओं के नष्ट होते कैरियर को लेकर युवा लेखक गंगासहाय मीणा अपने एक लेख में लिखते हैं- “युवा भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। एक तरफ शिक्षित व प्रशिक्षित युवाओं की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ बेरोजगारी की दर भी बढ़ रही है। हर नया आंकड़ा बढ़ती बेरोजगारी की दास्तां बयान करता है। एनएसओ की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि जनवरी से मार्च 2019 की तिमाही में शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर में इजाफा हुआ है।”2

बेरोजगारी की इसी तलख सच्चाई को उजागर करता एक अनूठा उपन्यास है ‘अन्वेषण’। तद्भव के संपादक अखिलेश द्वारा सन् 1992 में रचित यह उपन्यास बेहद प्रासंगिक है। उपन्यास आदि से अंत तक भारतीय युवाओं के खत्म होते कैरियर की बात सिरे से उठाता है। जिसकी कथा के केंद्र में एक ऐसा व्यक्ति (नायक) है जो उच्च शिक्षित है किन्तु नौकरी न मिलने के कारण घोर निराशाजनक स्थिति में है। एक तरह से यह व्यक्ति(नायक) समस्त बेरोजगार नवयुवकों का प्रतीक मॉडल भी है। दिन-रात अपनी असफलताओं और निराशाओं से जूझता वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। उपन्यास का फ्लैप भी नायक की इसी अंतहीन जिजीविषा की ओर संकेत करता है- “सहज मानवीय उर्जा से भरा इसका नायक एक चरित्र नहीं, हमारे समय की आत्मा की मुक्ति की छटपटाहट का प्रतीक है। उसमें खून की वही सुर्खी है, जो रोज-रोज अपमान, निराशा और असफलता के थपेड़ों से काली होने के बावजूद, सतत संघर्षों के महासमर में मुँह चुराकर जड़ता की चुप्पी में प्रवेश नहीं करती, बल्कि अँधेरी दुनिया की भयावह छायाओं में रहते हुए भी उस उजाले का अन्वेषण करती रहती है, जो वर्तमान बर्बर और आत्महीन समाज में लगातार गायब होती जा रही है।”3

उपन्यास की शुरुआत ही कथानायक की बढ़ती उम्र और बढ़ती बेरोजगारी के साथ होती है। उम्र के साथ बढ़ती बेरोजगारी न सिर्फ उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित करती है अपितु शारीरिक रूप से भी वह खुद को कमजोर महसूस करता है। नायक द्वारा कहा गया यह वाक्य ‘मैं जिन्दगी के उन्तीसवें साल में हूँ या मैं मृत्यु के उन्तीसवें साल में हूँ।’4 हमारे समय का सबसे त्रासदपूर्ण वाक्य है। जीवन में कुछ न कर पाने के कारण उसके मन में निरंतर छटपटाहट होती रहती है। नौकरी के अभाव में वह न तो खुद सुख की अनुभूति कर पाता है और न ही अपने माता-पिता को कोई सुख दे पाता है। वह माँ के लिए रंग-बिरंगी साड़ी नहीं ला सकता और न ही पिता के लिए कोई कीमती घड़ी। इतने वर्षों बाद मिली पूर्व प्रेमिका विनीता को मैंगो जूस तक नहीं पिला सकता। यहाँ तक कि मकान-मालिक का किराया भी समय पर नहीं चुका पाता। एक तरह से वह जीवन के हर क्षेत्र में खुद को असमर्थ महसूस करता है। इस संदर्भ में हरे प्रकाश उपाध्याय लिखते हैं-“कथाकार अखिलेश का पहला उपन्यास अन्वेषण दरअसल भयावह बेरोजगारी और कैरियरवाद के बीच व्यवस्था से जूझते उस संघर्ष और सरोकार की तलाश की कोशिश है, जो कहीं दीप्त तो अपनी आभा के साथ है मगर उसके लापता हो जाने का खतरा सामने पेश है।”5

यह हमारे समाज का एक क्रूरतम सच है कि जिसके पास नौकरी है लोगों की नजरें सबसे पहले उसी पर पड़ती है उसी के ठाठ-बाट के सब दीवाने हुए जाते हैं जबकि वहीं एक बेरोजगार व्यक्ति घोर परिश्रम करने के बावजूद भी खुद को उस पायदान पर खड़ा हुआ नहीं पाता। उसका दिमागी विवेक एकदम शून्य हो जाता है परिणामस्वरूप वह खुद को समाज से परे कर लेता है। कुछ ऐसी ही हालत कथा के नेरेटर की भी है। नौकरी न मिलने के कारण गाँव या आस-पास के लोगों की बातें उसे कील की भांति चूभती है। वह समाज की नजरों से बचकर कहीं छिपना या दूर भाग जाना चाहता है। जब भी कोई उससे उसकी नौकरी के बारे में पूछता है तो वह स्वयं को युद्ध में हारे हुए सिपाही की भांति पाता है। जिसके घाव में हो रहे दर्द का अंदाजा लगा पाना बेहद कठिन है। चाय पर दोस्तों के सामने वह खुद पर लोगों द्वारा की जाने वाली मारक टिपण्णी को बताते हुए कहता है- “आजकल क्या कर रहे हो ?” यह सवाल मेरे लिए सबसे ज्यादा हिंसक, क्रूर और दैत्यकर था। जब भी कोई मुझसे पूछता, मैं लहूलुहान और कुचला हुआ हो जाता।”6

असफलता के इस पुल पर खड़े हुए कई बार वह आत्महत्या करने की भी सोचता है लेकिन पीछे मुड़ जब वह अपने दोस्तों को देखता तो उसे महसूस होता है कि बेरोजगारी के इस रणक्षेत्र में वह अकेला नहीं है बल्कि उसके दोस्त भी हाथों में ज्ञानरूपी तलवार लिए वर्षों से प्रतीक्षारत है। चाय के मध्य बातचीत में मुईद (दोस्त) देवेन्द्र की आत्महत्या का जिक्र छेड़ते हुए कहता है- “पिछले साल, नवम्बर में देवेन्द्र ने आत्महत्या कर ली।”….राखी में बहन नहीं आई तो वह बहन के घर राखी बँधाने खाली हाथ गया था। बहन ने राखी बाँध दी और कहा, तुम हमारी हँसी क्यों उड़वाते हो? वह दरअसल उसी क्षण मर गया था लेकिन उसने आत्महत्या रास्ते में की। हालाँकि बहन कोई अकेली वजह नहीं थी। बहन की तरह बहुत लोगों ने उसे मारा था। वह बहुत बार मरा था लेकिन आत्महत्या उसने रास्ते में की।”7 अखिलेश ने उपन्यास में नायक तथा उसके दोस्तों के माध्यम से आज के युवा समाज की दिन-ब-दिन खराब होती मन:स्थिति और बढ़ती आत्महत्याओं की ओर भी संकेत किया है।

बेरोजगारी व्यक्ति को समाज की नजरों में ही शर्मिंदा नहीं करती बल्कि वह उसके प्रेम को पाने में भी बाधक बनती है। बेरोजगार युवक के सामने विवाह एक बड़ी समस्या है। जीवन के संघर्ष में पढ़ते-पढ़ते वह उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच जाता है जहाँ ‘नौकरी’ और ‘विवाह’ दोनों ही व्यक्ति की जरूरत है। चूंकि उपन्यास का नायक एक मध्यवर्गीय पात्र है ऐसे में उसके लिए सरकारी नौकरी अलादीन के जादुई चिराग से कम नहीं है क्योंकि यह चिराग ही उसके प्रेमविवाह तक पहुँचने का शीर्षतम साधन है। प्रस्तुत उपन्यास में नायक का प्रेम विनीता है। वह उसे पाना चाहता है। उसे पाने का केवल एक ही आधार है और वह है ‘नौकरी’| वह नौकरी पाना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि यदि नौकरी नहीं मिली तो विनीता भी नहीं मिलेगी। प्रेम को पाने के लिए वह (कथानायक) अपनी पढ़ाई के दौरान ही नौकरी के फार्म भरता रहता है ताकि नौकरी प्राप्त करके विनीता से जल्द से जल्द शादी कर सके, लेकिन नौकरी पाना उतना आसान नहीं है। अपनी इसी आत्मपीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए वह कहता है- “मेरा एम.ए का रिजल्ट निकल आया। मैं नौकरी को पाना चाहता था क्योंकि मैं विनीता को पाना चाहता था। मैं चाहता था कोई नौकरी कर उससे शादी कर लूँ। लेकिन नौकरी खफा थी।”8 नौकरी न मिलने के साथ प्रेम न मिलने की जिस दुखद त्रासदी का चित्रण उपन्यासकार ने किया है वह कहीं न कहीं हमारे तथाकथित समाज की दोहरी मानसिकता का परिचय देती है। शिक्षित युवाओं में बढ़ रही इस बेरोजगारी को लेकर डॉ. परमेश्वर सिंह अपनी पुस्तक ‘भारतीय कृषि’ में लिखते हैं कि- “इस समय अधिकांश पढ़े-लिखे युवा रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटकते रहते हैं। एक अनुमान के अनुसार देश की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं से प्रतिवर्ष 7 लाख के लगभग छात्र अपनी शिक्षा समाप्त करके निकलते हैं और इसमें से सिर्फ आधे लोग ही रोजगार प्राप्त कर पाते हैं। इस प्रकार शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी निरन्तर बढ़ती जा रही है। एक गैर सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार इस समय देश में लगभग एक करोड़ से भी अधिक शिक्षित लोग बेरोजगार है। देश में तकनीकी अथवा औद्योगिक शिक्षा की कमी, के कारण भी शिक्षित बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है।”9

लेखक ने नायक के माध्यम से दिखाया है कि किस प्रकार एक बेरोजगार व्यक्ति खुद को समाज के सामने, परिवार तथा प्रेमिका के सामने असहज महसूस करता है। किस प्रकार बेरोजगारी की बढ़ती लकीरें उससे उसका आत्मबल और स्वाभिमान छीनती जाती है। जीवन के हर क्षेत्र में वह खुद को भीड़ से घिरे हुए नहीं बल्कि एकदम अकेला कमजोर पाता है जिसके अच्छे-बुरे की खबर तक लेने वाला कोई साथी मौजूद नहीं होता। यदि कुछ साथ होती है तो वह रेगिस्तान की तरह दूर-दूर तक पसरी बेरोजगारी जिसकी रेतीली हवाएं नायक को निरंतर सूखाती रहती है। ऐसी स्थिति में वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए सोचता है कि पहले वह अपने दोस्तों के बीच कितना मशहूर था- “एक वक्त था कि मेरे दोस्तों ने मेरे बारे में मशहूर किया था कि मैं जीवन के किसी भी इलाके में प्रवेश करूँ, सफलता कदम चूमेगी। सचमुच, मेरे मित्रों का दावा था कि मैं चाहूँ तो बहुत बड़ा लेखक बन सकता हूँ? मैं चाहूँ तो बहुत बड़ा अफसर बन सकता हूँ। मैं चाहूँ तो बड़ा स्मगलर बन सकता हूँ। मैं चाहूँ तो बहुत बड़ा अभिनेता बन सकता हूँ। मैं जो भी चाहूँ, बन सकता हूँ।”10 आज जिस तरह से समाज में बेरोजगारी की बाढ़ आई हुई है उसका सीधा जुड़ाव भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी से ही है। बड़ी-बड़ी संस्थाएं घूस के दम पर ही फल-फूल रही है। जितनी तेजी से विकास की गति बढ़ रही है उससे कहीं अधिक तेज गति से प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार के बीज पनप रहे हैं। लेखक ने कथानायक के पिता के माध्यम से भ्रष्टाचार एवं बढ़ती घूसप्रवृति को दिखाया है। बेटे के नौकरी न लगने पर एक पिता की मज़बूरी और शासनतंत्र के प्रति उनका विरोधी रवैया साफ तौर पर देखा जा सकता है- “आजकल भ्रष्टाचार है, बेईमानी है। बिना पैसा-कौड़ी के कोई काम होता नहीं…तो ये जो सत्ताइस हजार हैं, इनसे अगर कोई नौकरी मिल जाए तो बात करो …|”11 बेरोजगार बेटे के हाथ में रूपये थमाते हुए पिता का यह वाक्य जितना संवेदनशील है उतना ही व्यवस्था पर प्रहारक भी। उपन्यासकार द्वारा उठाया गया यह प्रसंग आज उतना ही ज्वलंत है जितना की पहले था। वर्तमान व्यवस्था अपने जिस कुत्सित एजेंडे के चलते युवाओं के भविष्य को लील रही है उसका भीतरी ढाँचा अत्यंत भ्रष्ट, हिंसक, क्रूर और अमानवीय है जिसमें बदलाव की आवयश्कता है वरना वह दिन दूर नहीं जिस दिन संपूर्ण भारत अंधकारमय हो जायेगा।

इस प्रकार आदि से अंत तक बेरोजगारी की भयावहता को प्रदर्शित करता यह उपन्यास अपने समय का बेहद महत्त्वपूर्ण आख्यान है जो कभी न खत्म होने वाली बेरोजगारी की भयावहता के साथ-साथ भ्रष्ट तंत्र पर भी तीव्र प्रहारक के रूप में खड़ा होता है। साथ ही औपन्यासिक नायक के जरिये देश के हर उस युवक-युवती की बात भी सिरे से उठाता है जिनके वर्तमान और भविष्य पर बेरोजगारी का संकट मंडरा रहा है। इस दृष्टि से यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अन्वेषण आज के आदमी के भीतर दबे हुए प्रश्नों एवं दबी हुई चेतना की मुखर अभिव्यक्ति का सशक्त रूप है।

संदर्भ सूची:

  1. अखिलेश, ‘अन्वेषण’, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, नई दिल्ली, संस्करण-1992 पृष्ठ संख्या-96
  2. (patrika. com/c/46222762, epaper, बुधवार, 27नवम्बर 2019)
  3. अखिलेश, ‘अन्वेषण’, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, नई दिल्ली, संस्करण-1992, फ्लैप
  4. वही, पृष्ठ संख्या-10
  5. वही, पृष्ठ संख्या-277
  6. वही, पृष्ठ संख्या-85
  7. वही, पृष्ठ संख्या-97
  8. वही, पृष्ठ संख्या-27
  9. डॉ. सिंह, परमेश्वर, ‘भारतीय कृषि,’ कैलविन पब्लिकेशन, दिल्ली, संस्करण-2015, पृष्ठ संख्या-102
  10. अखिलेश, ‘अन्वेषण’, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, नई दिल्ली, संस्करण-1992 पृष्ठ संख्या-13
  11. वही, पृष्ठ संख्या-104

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